पर्चे चिपकानेमें कोई अपराध जैसी बात है, लेकिन अधिकारियोंने उसे अपराध ही माना है।
अगर सरकारके साथ सहयोग करना बन्द कर दिया जाता है तो आप उससे अधिकारियोंपर किस तरहका दबाव पड़नेकी आशा रखते हैं?
मैं मानता हूँ, और सभी मानेंगे कि जनता चाहे राजी-खुशी सरकारके साथ सहयोग करे या मजबूरीसे, लेकिन उसके इस सहयोगके बिना कोई सरकार क्षण-भर भी नहीं टिक सकती; और अगर लोग हर क्षेत्रमें एकाएक सहयोग देना बन्द कर दें तो सरकार बिलकुल ठप हो जायेगी।
लेकिन क्या इसमें एक बहुत बड़ा "अगर" नहीं लगा हुआ है?
हाँ, अवश्य है।
और आप इस "अगर" के विरुद्ध किस तरह सफल होनेकी सोचते हैं?
संघर्षकी मेरी जो योजना है उसमें किसी भी प्रकार कार्यसिद्ध करनेका कोई विचार नहीं है। अगर खिलाफत आन्दोलनने सचमुच सभी वर्गों और जनसाधारणको प्रभावित किया है तो इसमें भाग लेनेके लिए पर्याप्त लोग भी सामने आयेंगे ही।
लेकिन इस प्रसंगमें क्या आप एक सत्यको यों ही मानकर नहीं चल रहे हैं?
नहीं, मैं किसी भी सत्यको यों ही मानकर नहीं चल रहा हूँ; क्योंकि जो तथ्य मेरे सामने हैं उनके आधारपर तो मैं यही मानता हूँ कि खिलाफतके सवालपर मुसलमानोंकी भावना बड़ी तीव्र है। अब देखना यही है कि उनकी भावना इतनी तीव्र है या नहीं कि सफल असहयोगके लिए जितने बलिदानकी जरूरत है वे उतना बलिदान कर सकें।
मतलब यह कि आपने स्थितिका जो सर्वेक्षण किया है उसके आधारपर आपको विश्वास होता है कि मुस्लिम आबादीके एक बहुत बड़े हिस्सेका समर्थन आपको प्राप्त है और इस विश्वासके आधारपर आप सोचते हैं कि असहयोग करनेकी सलाह देकर आपने ठीक ही किया, यही न?
हाँ।
और आपको यह भरोसा है कि इस असहयोगका इतना प्रसार होगा कि लोग सरकारसे सहयोग करना पूरी तरह बन्द कर देंगे?
नहीं, ऐसा नहीं है; और न फिलहाल मैं ऐसा चाहता ही हूँ। अभी तो मैं उसी हृदतक असहयोग कर रहा हूँ जिस हृदतक वह सरकारको यह महसूस कराने के लिए जरूरी है कि इस मामलेमें जनताकी भावना कितनी तीव्र है और इस कारण वह सरकारसे इतनी अधिक असन्तुष्ट है कि खिलाफत और पंजाबके सवालोंपर जो-कुछ किया जा सकता था, वह न तो भारत सरकारने किया और न ही साम्राज्य सरकारने।
लेकिन श्री गांधी क्या आप यह महसूस करते हैं कि मुसलमानोंके बीच भी ऐसे बहुत-से लोग हैं जो अपनी जातिके प्रति किये गये इस अन्यायको चाहे जितना