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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

परम कर्त्तव्य है, क्योंकि फिलहाल इन दोनों सरकारोंका हित जनताके हितोंके सर्वथा विरुद्ध पड़ता है।

क्या आपका मतलब यह है कि आप बहिष्कारका प्रचार इसलिए चाहते हैं कि आपके विचारसे भारतपर ब्रिटिश शासनकी पकड़का दृढ़ हो जाना इस देशके हितकी वृष्टिसे वांछनीय नहीं है?

हाँ! वर्तमान सरकार जैसी क्रूर सरकारकी पकड़का देशपर दृढ़ हो जाना यहाँके लोगोंके कल्याणकी दृष्टिसे वांछनीय नहीं है। मैं इंग्लैंड और भारतके सम्बन्धोंको ख़्वाहमख्वाह शिथिल कर देना नहीं चाहता। मैं तो यह चाहता हूँ कि उनके सम्बन्ध दृढ़ हों, लेकिन शर्त यह है कि उससे भारतका कल्याण हो।

क्या आप यह मानते हैं कि कौंसिलोंका बहिष्कार न करना और असहयोग, ये दोनों बातें परस्पर असंगत हैं?

नहीं, मैं ऐसा नहीं मानता; क्योंकि जो व्यक्ति असहयोगका कार्यक्रम स्वीकार करता है उसके लिए कौंसिलके उम्मीदवारके रूपमें खड़ा होना संगत नहीं होगा।

आपके विचारसे असहयोग अपने-आपमें एक लक्ष्य है या किसी लक्ष्यको सिद्ध करनेका साधन? यदि यह किसी लक्ष्यको सिद्ध करनेका साधन है तो वह लक्ष्य क्या है?

दरअसल यह एक लक्ष्यको सिद्ध करनेका साधन ही है और वह लक्ष्य है वर्तमान सरकारको, जो बहुत ही अन्यायी हो गई है, न्यायके मार्गपर लाना। जिस प्रकार किसी न्यायी सरकारके साथ सहयोग करना कर्त्तव्य है; उसी प्रकार अन्यायी सरकारके विरुद्ध असहयोग करना भी कर्तव्य है।

क्या आप कौंसिलमें प्रवेश करके रोध-अवरोधकी नीति अपनाने या वफादारीकी शपथ लेनेसे इनकार करनेको असहयोगसे संगत मानेंगे?

नहीं, असहयोगके एक सच्चे प्रयोगकर्त्ताकी हैसियतसे मैं मानता हूँ कि ऐसा कोई सुझाव असहयोगकी असली भावनासे मेल नहीं खाता। मैंने अक्सर कहा है कि रोध-अवरोधकी नीतिपर तो सरकार फूलती-फलती ही है, और जहाँतक वफादारीकी शपथ न लेनेका सम्बन्ध है, मुझे तो दरअसल इसमें कोई प्रयोजन दिखाई नहीं देता; इसका मतलब है व्यर्थ ही महत्त्वपूर्ण समय और बहुत-सारा धन नष्ट करना।

मतलब यह कि रोध-अवरोधकी नीतिका असहयोगके कार्यक्रममें कोई स्थान है ही नहीं?

नहीं... ।

क्या आपको पूरा भरोसा है कि संवैधानिक आन्दोलनके लिए सभी तरहके प्रयास करके देख लिये गये हैं और अब एकमात्र रास्ता असहयोग ही बचा है?

असहयोगको मैं असंवैधानिक तो मानता ही नहीं उलटे यह अवश्य मानता हूँ कि अब हमारे सामने असहयोग ही एकमात्र संवैधानिक उपाय है।