तिलक महाराजका जीवन था, वैसा ही बलिदान करके लोग मेरी बातोंको सफल बनायेंगे। उनका जीवन अगर हमें कुछ सिखाता है तो एक ही सर्वोच्च पाठ सिखाता है——वह यह कि अगर हम देशके लिए कुछ करना चाहते हैं तो वह भाषणों——चाहे वे कितने ही जोरदार, कितने भी वाग्मितापूर्ण और कितना भी विश्वास उत्पन्न करनेवाले हों——से नहीं, बल्कि अपने हर शब्द और हर कामके पीछे बलिदानकी भावना रखकर ही कर सकते हैं। मैं आपमें से प्रत्येक व्यक्तिसे यह पूछने आया हूँ कि क्या आप सब अपने देशके लिए, अपने देशके सम्मानके लिए, अपने धर्मके लिए पर्याप्त त्याग करनेको इच्छुक और तैयार हैं। मुझे मद्रासके नागरिकोंमें, और इस महान् प्रान्तके निवासियोंमें असीम विश्वास है। यह विश्वास मुझमें १८९३ से ही उत्पन्न होने लगा था, जब मैं पहले-पहल दक्षिण आफ्रिकामें तमिल मजदूरोंके सम्पर्कमें आया। मैं आशा करता हूँ कि परीक्षाकी इस घड़ीमें यह प्रान्त भारतके किसी भी प्रान्तसे पीछे नहीं रहेगा, बलिदानकी इस भावनामें सबसे आगे जायेगा और एक-एक शब्दको कार्य-रूप देगा। [१]
असहयोगकी आवश्यकता
यह असहयोग, जिसके बारेमें आपने इतना सुना है, क्या चीज है; और हम क्यों असहयोग करना चाहते हैं? पहले मैं इस "क्यों" पर विचार करूँगा। इस देशके सामने दो सवाल हैं: इनमें पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण है खिलाफतका सवाल। इस सवालपर भारतके मुसलमानोंका हृदय व्यथासे छलनी हो उठा है। इंग्लैंडके प्रधान मन्त्रीने अंग्रेज राष्ट्रकी ओरसे काफी सोच-विचारकर जो वचन दिये थे, उनसे वे सरेआम मुकर गये। भारत के मुसलमानोंको दिये गये इन्हीं वचनोंके आधारपर भारत ब्रिटिश राष्ट्रको सहायता देने को तैयार हुआ और यह सहायता उसने स्वीकार भी कर ली, लेकिन अब इन्हीं वचनोंको तोड़ दिया गया है और महान् इस्लाम धर्मको खतरेमें डाल दिया गया है। मुसलमानोंका विचार है, और मैं कहूँगा कि उनका यह विचार बिलकुल सही है, कि जबतक ब्रिटेन अपने वचन पूरे नहीं करता तबतक उसके प्रति निष्ठा और वफादारी बरतना उनके लिए असम्भव है, और अगर मुसलमानोंके सामने यह सवाल आता है कि वे ब्रिटेनके प्रति वफादारी दिखायें या अपने मजहबी उसूलों और पैगम्बरके प्रति वफादारी दिखायें तो वे निर्णय करनेमें क्षणभर की भी देर नहीं करेंगे——बल्कि सच तो यह है कि वे अपना निर्णय घोषित कर चुके हैं। उन्होंने तो बहुत ही स्पष्ट शब्दोंमें, खुलेआम और ईमानदारीके साथ सारी दुनियाको यह बता दिया है कि ब्रिटिश मन्त्री और ब्रिटिश राष्ट्रने उन्हें जो वचन दिये हैं, अगर वे उनका निर्वाह नहीं करते और भारतमें रहनेवाले इस्लामके ७ करोड़ अनुयायियोंकी भावनाका आदर करना नहीं चाहते तो मुसलमानोंके लिए ब्रिटिश सरकारके प्रति सच्ची वफादारी रखना असम्भव होगा। तो अब सवाल सिर्फ इतना ही रह जाता है कि इस सम्बन्धमें भारतके शेष लोग क्या सोचते हैं——वे अपने मुसल-
- ↑ यहाँतक का अंश हिन्दूसे लिया गया है।