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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

मान देशभाइयोंके प्रति पड़ोसीका कर्त्तव्य निभाना चाहते हैं या नहीं। और अगर वे यह कर्त्तव्य निभाना चाहते हों तो उनके सामने मुसलमानोंके प्रति अपनी सद्भावना, भाई-चारा और मंत्री-भाव प्रदर्शित करनेका तथा वे जो दीर्घकालसे कहते आ रहे हैं। कि मुसलमान हिन्दुओंके भाई हैं, इसे सत्य सिद्ध करनेका सुनहरा अवसर प्रस्तुत है, अगले सौ बरसोंमें भी फिर ऐसा अवसर नहीं आयेगा। अगर हिन्दू लोग मुसलमान भाइयोंके साथ अपने स्वाभाविक नातेको ब्रिटिश राष्ट्रके साथ अपने नातेसे ऊपर मानते हैं तो मैं आपसे कहूँगा कि अगर आपको लगता हो कि मुसलमानोंकी माँगें न्यायसंगत हैं, उनके हृदयकी सच्ची भावनापर आधारित हैं, और उनके पीछे एक जबरदस्त धार्मिक भावना काम कर रही है तो आपका एकमात्र कर्त्तव्य यही है कि जब-तक मुसलमानोंका उद्देश्य न्याय-सम्मत, शालीनतापूर्ण और भारतके लिए किसी भी तरहसे हानिकर नहीं है तबतक आप उनकी पूरी-पूरी सहायता करें। ये बहुत ही सीधी-सादी शर्तें हैं। इन्हें मुसलमानोंने स्वीकार कर लिया है, और जब उन्होंने देखा कि हिन्दू उन्हें जो सहायता देनेको तत्पर हैं, वह सहायता स्वीकार करनेकी स्थितिमें वे हैं, अर्थात् वे दुनियाके सामने अपने उद्देश्य और साधनका औचित्य बराबर सिद्ध कर सकते हैं, तभी उन्होंने हिन्दुओंकी दोस्तीका प्रस्ताव स्वीकार करनेका निश्चय किया। तो अब हिन्दुओं और मुसलमानोंका यह कर्त्तव्य है कि वे एक होकर यूरोपकी ईसाई शक्तियोंके सामने डट जायें और उन्हें बता दें कि भारत दुर्बल भले हो पर उसमें भी अपने आत्म-सम्मानकी रक्षा करनेकी पर्याप्त क्षमता है, वह आज भी अपने धर्म और आत्म-सम्मानकी खातिर मर मिटना भूल नहीं गया है।

संक्षेपमें यही है खिलाफतका सवाल। लेकिन आपके सामने पंजाबका सवाल भी है। पंजाबकी घटनाओंसे भारतीयोंके हृदयपर ऐसा आघात पहुँचा है जैसा पिछले सौ वर्षोंमें कभी किसी घटनासे नहीं पहुँचा था। मैं १८५७ के गदरको भी ऐसी घटनाओंसे अलग नहीं रख रहा हूँ। गदरके दौरान भारतीयोंको चाहे जितनी भी कठिनाइयाँ झेलनी पड़ी हों, लेकिन उनका जैसा अपमान करनेकी कोशिश रौलट अधिनियम बनाते समय की गई, और उसके पास हो जानेके बाद उनका जैसा अपमान किया गया, वह भारतके इतिहासमें बेमिसाल है। आप पंजाबके साथ किये गये बर्बरतापूर्ण व्यवहारके सम्बन्धमें ब्रिटिश राष्ट्रसे न्याय प्राप्त करना चाहते हैं, इसलिए आपको उसका उपाय ढूँढ़ निकालना है, कॉमन्स सभा, लॉर्ड सभा, श्री मॉण्टेग्यु और भारतके वाइसराय, ये सभी जानते हैं कि खिलाफत और पंजाबके सवालोंपर भारतीयोंकी भावना कितनी तीव्र है। संसदके दोनों सदनोंमें इन प्रश्नोंपर जो बहस-मुबाहिसा हुआ, इस सम्बन्धमें श्री मॉण्टेग्यु और वाइसराय महोदयने जो कुछ किया उस सबसे आपको पूरी तरह स्पष्ट हो गया होगा कि भारत जिस न्यायका हकदार है और जिसकी वह माँग कर रहा है, वह न्याय वे नहीं देना चाहते। हमारे नेताओंको इस कठिन परिस्थितिसे छुटकारा पानेका कोई रास्ता ढूँढ़ना चाहिए, और जबतक हम भारतमें ब्रिटिश शासकोंके साथ देना-पावना बराबर नहीं कर लेते, जबतक ब्रिटिश शासक हमारे आत्म-सम्मान-का उचित खयाल नहीं रखने लगते तबतक उनके और हमारे बीच कोई भी सम्बन्ध,