यह प्रश्न उठ ही नहीं सकता। छोटे-छोटे वकीलोंको खिलाफत समिति आजीविका प्रदान करके आन्दोलनके काममें लगा सकती है अथवा उन्हें जनताकी ओरसे नियुक्त पंचोंसे न्याय प्राप्त करानेके कार्यमें लगाकर मेहनताना दे सकती है। और फिर वकील कोई ऐसे नहीं होते कि वकालत छूटनेपर हाथपर-हाथ धरकर बैठ जायें। उनमें अपनी रोजी दूसरे ढंगसे कमानेकी शक्ति होती है और होनी चाहिए।
अन्तमें वकीलोंको मेरी यह सलाह नहीं है कि वे सनदें छोड़ दें, बल्कि यह है कि वे आन्दोलन के दौरान वकालत बन्द कर दें।
स्वर्गीय गोखले कहा करते थे कि दृढ़, होशियार अथवा संगठित नौकरशाहीसे भिड़नेका कार्य अर्थात् राजनीतिका संचालन जनता अपने आरामके——खेलके समय करती है। इसीसे वह कार्य कच्चा रह जाता है। इस दोषसे मुक्त होने का मार्ग भी यही है कि वकील वकालत बन्द करके जनताके कार्यको आरामके समयका कार्य न मानकर अपना मुख्य कार्य मानें। यह तो वकालत बन्द किये बिना सम्भव नहीं है। वकील स्वयं बलिदान करनेके लिए तैयार न हों तो वे जनतासे बलिदानके लिए कैसे कह सकते हैं? खिलाफत अथवा पंजाबके मामलेमें न्याय प्राप्त करना कोई खेल नहीं है। इस तरह प्रत्येक दृष्टिसे जाँच करनेपर यही लगता है कि वकीलोंको यदि खिलाफत या पंजाबके मामलेमें सच्ची चिन्ता हो तो उनसे वकालत हो ही नहीं सकती।
अब हम पाठशालाओं व कालेजोंके त्यागके सम्बन्धमें विचार करें।
हमारी सरकार इन पाठशालाओं तथा कालेजोंके द्वारा नौकर तैयार करती है। सरकारको मिलनेवाली ऐसी महत्त्वपूर्ण सहायताको बन्द करनेकी बात साधारण बात नहीं है। जबतक हम सरकारको अच्छा मानते हैं तबतक सरकारी पाठशालाओंमें पढ़कर सरकारी नौकरीके लायक लोग तैयार करना कोई शर्मकी बात नहीं; लेकिन जब सरकार जनताके विरुद्ध खड़ी हो तब पाठशालाओंको उसके हाथमें रहने देना उसकी सत्ताको प्रतिष्ठित करना है।
पाठशालाओंको यदि हम सरकारी अनुग्रहके रूपमें मानें तो भी हमें अन्यायी सरकारका अनुग्रह स्वीकार नहीं।
पाठशालाओंके बन्द होनेसे बच्चोंकी शिक्षा अधूरी रह जायेगी, ऐसी शंकाका कोई कारण नहीं है। यदि कोई पाठशाला पूरी तरहसे बन्द हो जाये तो उसका संचालन जनता कर सकती है। जनतामें इतनी शक्ति न हो तो इससे यह सिद्ध होता है कि उसमें सरकारके विरुद्ध लड़नेकी शक्ति नहीं है। सब अथवा ज्यादातर माता-पिता अपने बच्चोंको पाठशालाओंसे निकाल लें तो उनके अध्यापक खुद-ब-खुद त्यागपत्र दे देंगे। ऐसा हो तो हम उन्हीं अध्यापकोंसे पाठशालाएँ चलायें। यदि उनपर फीससे कुछ अधिक खर्च आये तो उसे सम्बन्धित स्थानोंकी समितियाँ उठा लें। माता-पिता भी उतना ही अधिक भार वहन करें।
इसके अतिरिक्त अगर कुछ समयतक शिक्षा बन्द रहे तो इसमें क्या हर्ज है? पर शिक्षा बन्द करनेकी तो इसमें बात ही नहीं है उलटे मेरा दावा तो यह है कि बच्चोंको पाठशालाओंसे निकाल लेना अथवा उनका स्वयं कालेज छोड़ना ही सच्ची