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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

लन चलानेके सामान्य तरीके असफल सिद्ध हो चुके हैं। अब आप सबके सामने असहयोगका सिद्धान्त ही एकमात्र उपाय रह गया है और जो लोग इस सिद्धान्तको ठीक समझते हैं उन्हें यह भी स्वीकार करना चाहिए कि खिताबोंका त्याग, परिषदोंका बहिष्कार, स्कूलोंसे बच्चोंको निकाल लेना, अपनी वकालत छोड़ देना, युवराजके प्रस्तावित आगमनका बहिष्कार और जोर-शोरसे स्वदेशीके लिए काम करना——ये सभी चीजें असहयोग कार्यक्रमको प्रभावशाली बनानेके लिए अत्यावश्यक हैं। ऐसी सभी शिक्षण-संस्थाओंको खाली कर देना चाहिए जिनकी व्यवस्था सरकार करती हो या जिनको सरकारसे अनुदान प्राप्त होता हो या जिनको सरकारने मान्यता दे रखी हो क्योंकि इनका काम मुख्यतः सरकारके लिए क्लर्क और नौकर तैयार करना ही है। जहाँतक परिषदोंकी बात है, सरकारके काममें बाधा डालनेके खयालसे उनमें सीटें हासिल करनेकी हदतक सहयोग करनेका विचार पूरी तरह असहयोग करना नहीं है; आधे मनसे असहयोग करना है। आज तो हमें एक ऐसी दुरभिमानी और शक्तिशाली सरकारसे लोहा लेना है, उससे असहयोग करना है जो लोकमतके विरुद्ध खड़ी रहने और अपनी अन्यायपूर्ण नीतिपर दृढ़ रहनेमें समर्थ है। इसलिये वर्तमान परिस्थितियोंमें उसके विरुद्ध आधे मनसे की गई किसी प्रकारकी कार्रवाई पर्याप्त नहीं हो सकती। उम्मीदवारोंको चुनावमें खड़े नहीं होना चाहिए और लोगोंको अपने चुनाव-क्षेत्रोंसे प्रतिनिधि भी नहीं भेजने चाहिए। इसके बाद श्री गांधीने बताया कि वकीलोंको अपनी वकालत क्यों स्थगित कर देनी चाहिए और क्यों युवराजके आगमनका बहिष्कार करना चाहिए। उन्होंने कहा कि मैंने जो अनेक कदम उठानेकी बात कही है वे केन्द्रीय खिलाफत समितिके असहयोग सम्बन्धी कार्यक्रमके पहले दौरमें शामिल किये गये हैं और उनकी व्यवस्था कुछ इस तरह की गई है कि आज समाजके उच्चतर स्तरके लोग स्वयं आत्म-त्याग करके इस मामलेमें आम लोगोंका नेतृत्व करें। आखिरी दौरमें आम लोगोंको असहयोगपर अमल करनेका सुअवसर प्राप्त होगा। सरकारकी ओरसे प्राप्त खिताब अब अपमानके तमगे बनकर रह गये हैं इसलिए तनिक भी आगा- पीछा किये बिना उनका त्याग कर दिया जाना चाहिए। अन्तमें गांधीजीने श्रोतृसमूहसे जोरदार अपील करते हुए कहा कि जैन सभाने मेरे अभिनन्दनमें मुझे जैनमतानुयायी बताया है, लेकिन बात गलत है। मैं वैष्णव हूँ; और अपने पितासे असहयोग करनेवाला प्रह्लाद असहयोगियोंका सरताज था। उसने अपने आचरण द्वारा दिखा दिया कि अगर कोई व्यक्ति मानता है कि ईश्वर ही सबसे बड़ा है तो अपने पितातकसे असहयोग करना उसका परम कर्तव्य हो जाता है। इस संकटपूर्ण कालमें यदि वैष्णव असहयोग नहीं करता तो इसका मतलब होगा कि उसने अपने धर्मके अनुसार आचरण नहीं किया। थोरोने बिलकुल ठीक कहा है कि अन्यायी सरकारके अधीन अपनी स्वतन्त्रता, सम्पत्ति और सुख-सुविधाएँ होम करके घोर कष्ट सहन करना ही एकमात्र सम्माननीय मार्ग है। श्री शौकत अली मेरे इस अहिंसक असहयोगमें पूरा