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१०२. भाषण : त्रिचिनापल्लीमें

१७ अगस्त, १९२०[१]

त्रिचनापल्लीके नागरिकोंने हमारा जो शानदार स्वागत किया है उसके लिए मैं आप सबको अपने भाई शौकत अली तथा अपनी ओरसे भी धन्यवाद देता हूँ। आप सबने हमारा जो अभिनन्दन किया है उसके लिए भी आपको धन्यवाद देता हूँ। लेकिन आइए, अब कामकी बात करें।

आपसे दुबारा मिलकर मुझे बड़ी खुशी हो रही है; कारण बतानेकी जरूरत मैं नहीं समझता। मैं त्रिचिनापल्ली, मदुरा और इनके जैसे जिन अन्य थोड़ेसे स्थानोंके नाम ले सकता हूँ, मुझे उनसे बड़ी-बड़ी अपेक्षाएँ हैं। मैं समझता हूँ "मद्रास बीच" पर असहयोगके सम्बन्धमें दिया गया मेरा भाषण आप लोगोंने पढ़ा होगा। इस समय इस जबरदस्त सभामें उपस्थित लोगोंका ज्यादा समय लिये बिना मैं श्री एस॰ कस्तूरी रंगा आयंगरके[२]भाषणसे उठनेवाले एक-दो मुद्दोंपर विचार करना चाहता हूँ। उन्होंने जो कहा उसका यह आशय होता है कि मुझे असहयोगके सम्बन्धमें कांग्रेसका निर्णय होने तक रुके रहना चाहिए था। लेकिन यह सम्भव नहीं था; क्योंकि हिन्दू कुछ करते हैं या नहीं इसका खयाल रखे बिना मुसलमानोंका अपने धर्मकी दृष्टिसे कुछ कर्त्तव्य और है। किसी ऐसी बातपर जो इस्लामके सम्मानसे बहुत ही गम्भीर रूपसे सम्बद्ध है, इस्लामका जो आदेश है उसके अलावा किसी और आदेशके लिए रुके रहना उनके लिए गैर-मुमकिन था। इसलिए यह बात बिलकुल असम्भव थी कि वे कांग्रेसके सामने जाकर घुटने टेककर तफसीलसे अपना कार्यक्रम उसके सामने पेश करते और उससे उस कार्यक्रमके सम्बन्धमें आशीर्वाद माँगते और अगर उन्हें इस राष्ट्रीय संगठनका आशीर्वाद प्राप्त करनेका सौभाग्य न मिलता तो बादमें उसके प्रति कोई असम्मानका भाव भी मनमें न लाते। उनका तो यही परम कर्त्तव्य था कि वे अपने कार्यक्रमके अनुसार कार्य शुरू कर देते। मुसलमानोंके सामने एक सर्वथा उचित उद्देश्य है और वे उसे सिद्ध करना चाहते हैं। अतएव उन्हें अपना भाई समझनेवाले हिन्दुओंका यह कर्त्तव्य है कि वे उनके दुःखके साथी बनें। हमारे नेताको स्वयं असहयोगके सिद्धान्तसे कोई झगड़ा नहीं है लेकिन उन्हें उसकी तीन मुख्य तफसीलोंपर आपत्ति है।

उनका विचार है कि हमें कौंसिलोंमें स्थान प्राप्त करनेकी कोशिश करनी चाहिए और अपनी लड़ाई कौंसिल-भवनमें चलानी चाहिए। मैं कौंसिल-भवनमें एक शानदार लड़ाईकी सम्भावनासे इनकार नहीं करता। हम पिछले ३५ वर्षोंसे यह करते आये हैं। मैं आपसे और उनसे भी सभादरपूर्वक यह कहूँगा कि कौंसिलोंमें जाना और वहाँ

  1. मूल सूत्रमें १८ अगस्तकी तारीख दी गई है लेकिन गांधीजी उससे एक दिन पहले त्रिचिनापल्ली गये थे; देखिए "मद्रास-यात्रा", २९-८-१९२०।
  2. मद्रासते प्रकाशित हिन्दूके सम्पादक।