लड़ना असहयोग नहीं है; और असहयोग जितना सफल हो सकता है अभी तो उसका आधा भी सफल नहीं हुआ है। जिन लोगोंका अपना निश्चित मत है और जिनकी एक निश्चित आचरण-नीति है उनके बीच जाकर उन्हें अपने दृष्टिकोणके अनुकूल बनानेकी लड़ाई आप उनसे नहीं लड़ सकते। और अगर आप केवल व्यवधान उपस्थित ही करना चाहें तो वह भी सम्भव नहीं हो सकता। अगर चिकित्साशास्त्रकी भाषामें कहें तो यह परस्पर विरोधी पदार्थोंको मिलाना है, जिसका कोई भी अच्छा परिणाम नहीं निकल सकता। लेकिन अगर आप कौंसिलका पूरा बहिष्कार करें तो उससे खिलाफत और पंजाबके मामलेमें किये गये अन्यायोंके सम्बन्धमें देशमें एक लोकमत तैयार होगा और फिर उसे कोई भी दबा नहीं पायेगा। कौंसिलोंमें जानेसे एक यह लाभ हो सकता था कि शासकोंके मनमें हमारे प्रति सद्भावना उत्पन्न हो जाती; लेकिन उनमें तो सद्भावनाका सर्वथा अभाव है। सद्भावनाके बदले हमने अन्याय ही पाया है। खैर अब मैं दूसरी बात लूँ।
श्री कस्तुरी रंगा आयंगरकी दूसरी आपत्तिका सम्बन्ध वकीलोंके अपने धन्धे बन्द कर देनेके सुझावसे है। दूध अपने आपमें बहुत अच्छी चीज है, लेकिन उसमें जरा-सा भी संखिया पड़ जाये तो वह तत्काल विषैला हो जाता है। उसी प्रकार कानूनी अदालत भी बड़ी अच्छी चीज है [मगर तभी] जब कोई परम शक्तिशाली सरकार अपनी जनताके साथ न्याय करना चाहे और न्यायको इस तन्त्रके माध्यमसे शुद्ध रूपमें छनकर आने दे। ये अदालतें सरकारकी शक्तिके सबसे बड़े प्रतीक हैं और असहयोगकी लड़ाईमें ऐसा नहीं हो सकता कि आप इन अदालतोंको अछूता छोड़ दें और तब भी असहयोग करनेका दावा करें। लेकिन अगर आप श्री आयंगरकी आपत्तिको ध्यानसे पढ़ें तो आप देखेंगे कि उसका आधार यह आशंका ही है कि वकीलोंका जिस बातके लिए आह्वान किया गया है, उसमें वे योगदान नहीं करेंगे। लेकिन इसीमें तो असहयोगकी खूबी छिपी हुई है। अगर एक भी वकील अपना धन्धा बन्द कर देता है तो उसका उतना लाभ तो देशको मिलेगा ही। इसलिए अगर हमें यह निश्चय हो जाये कि हम सरकारको इस तरह उस शक्तिसे वंचित कर सकेंगे जो उसे कानूनी अदालतोंके द्वारा प्राप्त होती है, तो फिर हमें यह कदम उठाना ही है, चाहे इसमें एक वकील भाग ले या बहुतसे।
फिर उन्होंने सरकारी स्कूलोंके बहिष्कारकी योजनापर भी आपत्ति की है। मैं तो इस सम्बन्धमें भी वही बात कहूँगा जो मैंने वकीलोंके सम्बन्धमें कही है, अगर हम सचमुच असहयोग करनेका इरादा रखते हैं तो हमें सरकारसे कोई सुविधा नहीं लेनी चाहिए; फिर वह सुविधा हमारे लिए कितनी ही लाभदायक क्यों न हो। इतने जबरदस्त संघर्षमें हम यह हिसाब लगाते हुए नहीं बैठे रह सकते कि कितने स्कूल और कितने माता-पिता हमारी बात मानेंगे। ज्यामितिका प्रमेय कठिन होता है; क्योंकि उसमें अधूरे प्रमाणके आधारपर कोई बात स्वीकार नहीं की जाती, वैसे ही अगर आप महज इस कारणसे राष्ट्रीय विकासकी किसी अवस्थासे बच निकलना चाहें क्योंकि वह बहुत कठिन है तो वह समस्त विकास-प्रक्रिया एक तमाशा बनकर ही रह जायेगी।