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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/२१७

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कुछ और आपत्तियोंके उत्तर

जनसाधारण अपनी जायदाद बिकते देखकर भी अहिंसापर दृढ़ रहना नहीं सीख लेता तबतक अन्तिम चरणको किसी खास हदतक कार्यान्वित करना असम्भव ही होगा।

मैं उनकी इस बातसे भी सहमत हूँ कि अगर हमने चोरों और डाकुओंके खिलाफ स्वयं अपना बचाव करनेकी योग्यता प्राप्त न कर ली हो तो लोगोंके सैनिक और पुलिस-सेवासे एकाएक अलग हो जानेके परिणाम बहुत घातक होंगे। लेकिन मेरा कहना है कि जब हम सेना और पुलिससे लोगोंको बड़े पैमानेपर हटानेको तैयार होंगे तो हम देखेंगे कि हम अपनी रक्षा आप करनेकी स्थितिमें भी हैं। अगर पुलिस और सेनाके आदमी देशभक्तिकी भावनासे अपने पद छोड़ते हैं तो मैं निश्चय ही उनसे अपेक्षा करूँगा कि वे राष्ट्रीय स्वयंसेवकोंके रूपमें, किरायके टट्टुओंके रूपमें नहीं बल्कि अपने देशभाइयोंके जानमाल और आजादीके तत्पर रक्षकोंके रूपमें अपना वही कर्त्तव्य निभायेंगे। असहयोग आन्दोलन ऐसी चीज है जिसमें सब-कुछ स्वतः ही व्यवस्थित हो जाता है। अगर सरकारी स्कूल खाली कर दिये जाते हैं तो निस्संदेह मैं राष्ट्रीय स्कूल स्थापित किये जानेकी आशा रखता हूँ। अगर वकील लोग सामूहिक रूपसे अपना धन्धा बन्द कर देते हैं तो वे पंचायती अदालतोंकी व्यवस्था करेंगे और इस तरह राष्ट्रको एक ऐसी न्याय-प्रणाली प्राप्त हो जायेगी जिससे वह जल्दी और कम खर्चमें आपसी झगड़ोंका निपटारा भी कर पायेगा और गलत काम करनेवालेको सजा भी दे पायेगा। मैं यहाँ इतना और कह दूँ कि खिलाफत समिति भलीभाँति समझती है कि यह काम कितना कठिन है किन्तु ऐसी जो भी कठिनाई सामने आयेगी उसे निपटानेके लिए वह आवश्यक उपाय कर रही है।

जहाँतक असैनिक सेवा छोड़नेकी बात है, उससे किसी खतरेकी आशंका नहीं है, क्योंकि कोई भी तबतक अपना पद नहीं छोड़ेगा जबतक वह अपने मित्रोंके जरिये या अन्य किसी प्रकारसे अपनी और अपने परिवारकी रोटीका प्रबन्ध नहीं कर लेता।

मैंने विद्यार्थियोंको स्कूल-कालेज छोड़नेका जो सुझाव दिया है, उसे भी पसन्द नहीं किया गया है। मेरी नम्र रायमें, यह असहयोगके सच्चे स्वरूपको समझनेकी असमर्थताका द्योतक है। यह सच है कि हम अपने बच्चोंकी शिक्षाके लिए पैसा देते हैं। लेकिन जब शिक्षा देनेवाली संस्था भ्रष्ट हो गई हो तब हम उस संस्थाको चलानेवाले लोगोंके भ्रष्टाचारमें हिस्सेदार हुए बिना उसकी सेवाओंका उपयोग नहीं कर सकते। अगर विद्यार्थी स्कूल या कालेज छोड़ देंगे तो मुझे नहीं लगता कि स्वयं शिक्षक लोग भी अपने पद छोड़ देनेका औचित्य समझनेमें चूकेंगे। लेकिन अगर वे इस बातको न भी समझें तो भी जहाँ सम्मान और धर्मपर आँच आई हो वहाँ पैसेकी चिन्ता तो नहीं ही की जा सकती।

जहाँतक कौंसिलोंके बहिष्कारका सम्बन्ध है, उसमें नरम दलवालों और अन्य लोगोंके प्रवेश करनेसे उतना बनता-बिगड़ता नहीं जितना कि असहयोगमें विश्वास रखनेवाले लोगोंके प्रवेश करनेसे। ऐसा तो नहीं हो सकता कि आप नीचेके स्तरपर असहयोग करें और ऊपरके स्तरपर सहयोग। कौंसिलका कोई सदस्य स्वयं तो कौंसिलमें