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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

बना रहे और कौंसिलकी मेज साफ करनेवाले गुमाश्तेको त्यागपत्र देनेको कहे——यह नहीं हो सकता।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, १८-८-१९२०

 

१०४. स्वदेशी

अभी पिछले दिनों 'चरखेका संगीत' शीर्षक मेरे लेखकी[१]आलोचना करते हुए 'लीडर'ने मुझपर कुछ ऐसे विचार आरोपित किये हैं जो दरअसल मेरे मनमें कभी रहे ही नहीं। लोगोंको स्वदेशीका सच्चा महत्त्व समझानेके लिए इस सम्बन्धमें प्रचलित कुछ भ्रान्तियोंको दूर कर देना आवश्यक है। 'लीडर' के विचारसे मिलके सूतसे मिलमें तैयार किये गये कपड़ेके स्थानपर हाथसे कते और हाथसे बुने कपड़ेको प्रतिष्ठित करनेकी कोशिश करके मैं प्रगतिके मार्गमें रोड़ा अटका रहा हूँ। वास्तवमें मैं ऐसी कोई कोशिश नहीं कर रहा हूँ। मिलोंसे मेरा कोई झगड़ा नहीं है। मेरे विचार अविश्वसनीय रूपसे सीधे-सादे हैं। भारतको प्रतिवर्ष प्रति व्यक्ति लगभग १३ गज कपड़ेकी जरूरत है। मेरा खयाल है कि भारत इसके आधेसे भी कम कपड़ेका उत्पादन करता है। भारत अपनी सारी जरूरत पूरी करने लायक रुई स्वयं पैदा करता है। वह लाखों गाँठ रुई जापान और लंकाशायरको भेजता है और तैयार कपड़ेके रूपमें उसका अधिकांश फिर वापस मँगवाता है, हालाँकि उसमें हाथसे कताई और बुनाई करके अपनी जरूरत-भरका सूत और कपड़ा स्वयं तैयार कर सकनेकी क्षमता है। भारतका मुख्य धंधा खेती है, लेकिन यह धन्धा उसके लिए काफी नहीं पड़ता। इसलिए उसके लिए किसी दूसरे धन्धेका भी सहारा लेना जरूरी है। यहाँके लाखों करोड़ों लोगोंके लिए हाथसे कताई करना ऐसा ही एक धन्धा है। अभी सौ वर्ष पहले यह हमारा राष्ट्रीय धन्धा था। यह कहना गलत है कि आर्थिक दबाव और आधुनिक मशीनोंने हाथसे कताई और बुनाईके धन्धेको बरबाद किया है। दरअसल हमारे इस जबरदस्त उद्योगको अपनी अनोखी और अनैतिक चालोंसे पूर्णतः नहीं तो करीब-करीब बरबाद किया ईस्ट इंडिया कम्पनीने। अगर मेहनतकी जाये और हम अपनी रुचि तनिक बदल लें तो मिल-उद्योगको कोई नुकसान पहुँचाये बिना इस उद्योगका पुनरुद्धार किया जा सकता है। हमारे यहाँ कपड़ेकी जो कमी है उसका तात्कालिक उपाय मिलोंकी संख्यामें वृद्धि करना नहीं है। इस कमीको आसानीसे पूरा करनेका एकमात्र उपाय हाथसे कताई और बुनाई करना है। अगर इस धन्धेका पुनरुद्धार हो जाये तो प्रतिवर्ष हमारे देशसे जो छः करोड़ रुपये बाहर जाते हैं, वे देशमें ही रह जायें और यह रकम झोंपड़ियोंमें बैठकर काम करनेवाली हमारी लाखों गरीब बहनोंमें बँट जाये। इसलिए मैं स्वदेशीको भारतकी घोर निर्धनताका, आंशिक ही सही,

  1. २१ जुलाई, १९२० का लेख।