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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

हमारे अखबारों और नेताओंमें परस्पर चाहे जितना मतभेद हो, इस बातको सभी एक स्वरसे स्वीकार करते हैं कि अगर इस उपायको हिंसासे अलग रखा जाये और इसे काफी बड़े पैमानेपर अपनाया जाये तो यह बहुत ही सक्षम उपाय है। मैं इस कठिनाईको स्वीकार करता हूँ, लेकिन खूबी तो इसपर विजय पानेमें ही है। असहयोग जैसे आध्यात्मिक अस्त्रके साथ हिंसाका मेल बैठाना सम्भव नहीं। अगर हम अपनी जान देते हुए दूसरोंकी भी जान लेते हैं तो उसका मतलब होगा कि हमने शुद्ध बलिदान नहीं किया। इसलिए हिंसासे बिलकुल अलग रहना असहयोगके लिए एक जरूरी और पहली शर्त है। लेकिन मुझे अपने देशके ऊपर इतना विश्वास है कि मैं जानता हूँ, जिस दिन वह इस सिद्धान्तके रहस्यको पूरी तरह हृदयंगम कर लेगा, उस दिन वह अवश्य ही उसके अनुसार आचरण करेगा। और जबतक भारत आत्म- बलिदानका पाठ नहीं पढ़ लेता तबतक वह किसी तरह कोई प्रगति नहीं कर सकता। अगर यह देश खड्ग-बलके सिद्धान्तको स्वीकार करता है——ईश्वर न करे ऐसा हो——तो भी आत्म-बलिदानका पाठ तो——पढ़ना ही पड़ेगा। दूसरी कठिनाई यह बताई जाती है कि इस विषयपर राष्ट्र एकमत नहीं है। मैं इसे भी स्वीकार करता हूँ। लेकिन इस कठिनाईके जवाबमें तो मैं पहले ही कह चुका हूँ कि यह एक ऐसा उपाय है। जिसका सहारा हर व्यक्ति अपने सम्मानकी रक्षाके लिए और कोई राष्ट्र अपने राष्ट्रीय सम्मानकी रक्षा के लिए ले सकता है, और इसलिए अगर समस्त राष्ट्र असहयोग नहीं करता, तो भी व्यक्तिगत रूपसे असहयोग करके व्यक्ति जो सफलता प्राप्त करेगा, वह उसके लिए भी श्रेयकी बात होगी और उसके राष्ट्रके लिए भी।

मेरी नम्र सम्मतिमें पहला चरण तो बहुत ही आसान है, क्योंकि इसमें किसी बड़ बलिदानकी बात आती ही नहीं। अगर हमारे खान बहादुर या दूसरे खिताबयाफ्ता लोग अपने खिताब छोड़ दें तो मैं कहूँगा कि उनके इस त्यागसे जहाँ राष्ट्रका यश और सम्मान बढ़ेगा वहाँ वे बहुत कम या कुछ भी नहीं गँवायेंगे। वे कोई पार्थिव सम्पदा नहीं खोयेंगे; इतना ही नहीं, इसके विपरीत उन्हें राष्ट्रकी सराहना मिलेगी। अब हम यह देखें कि इस प्रथम चरणका मतलब क्या है। "हिन्दू" के सुयोग्य सम्पादक श्री कस्तूरी रंगा आयंगर तथा लगभग सभी अखबार इस बातसे सहमत हैं कि खिताब छोड़ना एक आवश्यक और वांछनीय कदम है। और अगर सरकारके ये चुनिन्दा लोग निरपवाद रूपसे सरकारसे मिले खिताब सरकारको वापस कर दें और उसे बता द कि भारत और इस्लामके सम्मानपर जो खतरा आया है उसके कारण भारत दोहरी व्यथाका अनुभव कर रहा है और इसलिए वे अब इन खिताबोंका भार नहीं ढो सकते तो मैं कहूँगा कि उनकी यह कार्रवाई, जिसमें न उनका और न राष्ट्रका एक पैसा खर्च होगा, राष्ट्रीय इच्छाका एक बहुत ही प्रभावकारी प्रदर्शन होगी।

अब असहयोगके दूसरे कदम या दूसरे विषयको लीजिए। मैं जानता हूँ कि कौंसिलोंके बहिष्कारके सुझावका लोग प्रबल विरोध कर रहे हैं। इस विरोधका विश्लेषण करनेपर आप देखेंगे कि विरोधका कारण यह नहीं है कि विरोधी लोग कुछ ऐसा