१०७. भाषण : बंगलौरमें असहयोगपर[१]
२१ अगस्त, १९२०
महात्माजी उर्दूमें बोले और सबसे पहले उन्होंने खड़े न हो सकनेके लिए माफी माँगी। श्री गांधीने दो राष्ट्रीय कष्टोंपर जोर देने और असहयोग आन्दोलनके पहले मुद्देसे सम्बन्धित विभिन्न विषयोंको विस्तारसे समझानेके बाद स्पष्ट घोषणा की कि यदि भारत सबैवके लिए इसी सरकारी तन्त्रका गुलाम बना रहना चाहता है, यदि भारतीय लोग न्यायके लिए अदालतोंमें जाना जारी रखेंगे, यदि वे सरकारी स्कूलोंमें अपने बच्चोंको भेजते रहेंगे और परिषदोंमें जाते रहेंगे तो भविष्यमें मेरा अन्तःकरण उनकी मालाएँ स्वीकार करनेकी गवाही नहीं देगा। जबतक अन्यायोंका प्रतिकार नहीं हो जाता तबतक सरकारको किसी भी रूपमें दी गई मदद उन जंजीरोंको कसनेका ही काम करेगी जिनमें भारत इस समय जकड़ा हुआ है। जब हमें पूरी तरह यकीन हो कि सरकारने इस्लामको जोखिममें डाल दिया है तो मैं सरकारको मदद देना और 'कुरान शरीफ' की आयतें पढ़ना——दोनों काम एक साथ नहीं कर सकता। मुसलमान खिलाफतकी रक्षाके लिए तलवार ग्रहण करना अपना धार्मिक कर्त्तव्य मानते हैं। मैं सदासे ही तलवारके सिद्धान्तका विरोधी रहा हूँ और मौलाना अब्दुल बारीने मुझे यकीन दिलाया है कि उनके महान् पैगम्बरने भी असहयोगका प्रयोग किया था। मुझे पूरा विश्वास है कि देशमें तलवार उठानेकी शक्ति नहीं है। तब बात घूम-फिरकर असहयोगके सीधे-से मुद्देके पहले चरणपर आ जाती है। मुझे लगता है कि श्री शौकत अली यही सच मानते हैं कि तलवार उठानेमें त्याग है, परन्तु यह भी सच है कि असहयोगके लिए उससे बड़ा त्याग दरकार है, फिर भी एक बच्चातक उसे अपना सकता है। उन्होंने मुसलमानोंको आगाह किया कि पीर महबूब शाहने[२]जैसी दुर्बलता दिखाई है, उससे बचते रहें। उन्होंने कहा कि भारतीयोंने अपनी ही आदतोंसे पीरों और पुजारियोंको बिगाड़ दिया है। इसलिए मैं जनतासे त्यागकी जितनी आशा रखता हूँ उतनी पीरोंसे नहीं। मेरे दक्षिण आफ्रिकी संघर्षमें मेरा पहला सहयोगी पुजारी ही था, पर सफलता तो जनताके बलपर ही प्राप्त हुई थी।
हिन्दू, २७-८-१९२०