रही हो उसे अपनानेकी आवश्यकतामें शंका करो। अपने प्राणोंको संकटमें डालकर भी बराबर सत्य बोलने और सत्यका आचरण करनेका पुरस्कार क्या हो सकता है? अपने देशके लिए मर मिटनेका पुरस्कार क्या हो सकता है? तुमने वर्षोंका समय लगाकर पिआनो बजानेमें सिद्धहस्तता प्राप्त की; उसका तुम्हें क्या पुरस्कार मिला? कोई भी जिस उद्देश्यको लेकर चलता है उसके लिए अपना सब-कुछ इसीलिए अर्पित कर देता है कि वह इसके सिवा और कुछ कर ही नहीं सकता। तुम्हारे सन्तोषका आधार सम्पूर्ण समर्पण होना चाहिए। जिस समर्पणसे हमें सन्तोष नहीं मिलता वह लाचारीका समर्पण है जो किसी भी आत्माभिमानी व्यक्तिके लिए अशोभनीय है। और अगर मेरे सम्पर्कमें आकर तुम इस सीधे-से सत्यको भी नहीं समझ पाईं तो मैं तुम्हारे प्रेमका योग्य पात्र नहीं हूँ। क्योंकि अगर मेरा जीवन तुम्हें इतना भी नहीं सिखा पाया तो मैं किसी कामका आदमी नहीं हूँ। असीम आत्म-समर्पण और सत्यनिष्ठा के अतिरिक्त मुझमें और कोई गुण नहीं है। सभीने मुझमें दो गुण लक्ष्य किये हैं, और अगर तुम मेरे जीवनमें इतनी गहराईतक उतरनेके बाद भी उन्हें नहीं देख पाई हो तो अवश्य ही मुझमें कोई खामी होगी। मेरी ये जो सबसे मूल्यवान निधियाँ हैं, उनके अलावा मैं तुम्हें और दे भी क्या सकता हूँ? इसलिए तुम्हें मेरे उपदेशोंका बुरा नहीं मानना चाहिए बल्कि जिस प्रेम-भावसे मैं तुम्हें उपदेश देता हूँ उसी प्रेमभावसे तुम उन्हें स्वीकार करो। अगर मैं तुम्हारा 'लॉ-गिवर' [विधि-प्रणेता] हूँ और फिर भी यदि मैं तुम्हारे लिए हमेशा नियमोंका विधान नहीं करता तो कमसे-कम तुम्हें वे बातें तो समझाऊँगा ही जो शाश्वत महत्त्वकी या जो देशके लिए, जिसके लिए हम जीते हैं और जिसे इतना अधिक प्यार करते हैं, सर्वोपरि महत्त्वकी हैं।
लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अगर तुम्हारे मनमें बुरे खयाल आयें तो तुम उन्हें लिखो नहीं। मेरा कहना यह है कि तुम ऐसे विचार अपने मनमें आने ही न दो।
तुम्हारा,
विधि-प्रणेता
महादेव देसाईकी हस्तलिखित डायरी
सौजन्य : नारायण देसाई