११४. असहयोगके पीछे धर्मका प्रमाण
श्री नारायण चन्दावरकर-जैसे विद्वान् नेताके साथ विवादमें पड़ना मेरे लिए कोई सुखकर काम नहीं है। लेकिन असहयोग आन्दोलनके प्रणेताके नाते मेरा यह कर्त्तव्य हो जाता है कि इस सम्बन्धमें अपने विचार स्पष्ट कर दूँ, हालाँकि ये विचार उन नेताओंके विचारोंके विरुद्ध पड़ते हैं जिन्हें मैं बहुत सम्मानकी दृष्टिसे देखता रहा हूँ। अपनी मलाबार-यात्राके दौरान मैंने अभी सर नारायणका वह प्रत्युत्तर पढ़ा है जो उन्होंने असहयोगके विरुद्ध बम्बईसे प्रकाशित घोषणा-पत्रके मेरे उत्तरके खण्डनस्वरूप दिया है। मुझे दुःखके साथ कहना पड़ता है कि उनका प्रत्युत्तर मुझे जँचा नहीं। लगता है हम दोनोंने 'बाइबिल', 'गीता' और 'कुरान' को भिन्न दृष्टिकोणोंसे पढ़ा है या इनका अलग-अलग अर्थ लगाया है। जान पड़ता है हमने अहिंसा, राजनीति और धर्मको भी अलग-अलग रूपोंमें समझा है। अब मैं यथासम्भव अधिकसे-अधिक स्पष्ट ढंगसे यह समझानेकी कोशिश करूँगा कि इन शब्दोंका मैं क्या अर्थ लगाता हूँ और भिन्न-भिन्न धर्मोको किस रूपमें समझता हूँ।
सबसे पहले तो मैं सर नारायणको आश्वस्त कर दूँ कि मैंने अपने अहिंसा-विषयक विचारोंमें कोई परिवर्तन नहीं किया है। मैं अब भी यही मानता हूँ कि जब मनुष्यमें किसीको जीवन देनेकी शक्ति नहीं है तो उसे धरतीके किसी तुच्छसे-तुच्छ प्राणीका जीवन लेनेका भी अधिकार नहीं है। यह विशेष अधिकार तो सिर्फ उसीको है जिसने सारे प्राणियोंको रचा है। मैं अहिंसाकी इस व्याख्याको स्वीकार करता हूँ कि यह सिर्फ किसीको हानि न पहुँचानेकी निषेधात्मक अवस्था ही नहीं है; वास्तवमें यह प्रेमकी, बुराई करनेवाले की भी भलाई करनेकी एक विधायक अवस्था है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि अन्यायीको अन्याय करनेमें सहायता दी जाये या उसे चुपचाप सिर झुकाकर सह लिया जाये। इसके विपरीत प्रेम, जो अहिंसाकी सक्रिय अवस्था है, आपसे यह अपेक्षा रखता है कि आप अन्यायीसे अपने सारे सम्बन्ध तोड़कर उसका विरोध करें; भले ही इससे वह नाराज ही क्यों न हो, उसे शारीरिक क्षति हो क्यों न पहुँचे। इसी तरह अगर मेरा लड़का लज्जाजनक जीवन बिता रहा हो तो मुझे चाहिए कि उसे सहारा देकर कुमार्गपर चलते रहनेमें उसकी सहायता न करूँ; इसके विपरीत उसके प्रति मेरे प्यारका तकाजा यह होगा कि मैं उसको किसी भी तरहसे सहारा न दूँ, भले ही इसके कारण उसे मौतके मुँह में ही क्यों न जाना पड़े। और उसी प्यारका तकाजा यह भी है कि अगर वह अपनी भूल समझकर पश्चात्ताप करे तो मैं उसे गलेसे लगा लूँ। लेकिन मुझे जोर-जबरदस्तीसे उसे नेक बननेपर मजबूर नहीं करना चाहिए। मेरे विचारसे 'बाइबिल' में वर्णित अपव्ययी पुत्रकी कहानीका सन्देश भी यही है।
असहयोग कोई निष्क्रिय अवस्था नहीं है, यह एक बहुत ही सक्रिय अवस्था है——शारीरिक प्रतिरोध या हिंसासे भी अधिक सक्रिय। असहयोगके लिए निष्क्रिय