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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

प्रतिरोध शब्द-पदका प्रयोग करना ठीक नहीं है। असहयोग शब्दका प्रयोग जिस अर्थमें मैं करता हूँ, उस अर्थमें यह एक ऐसी चीज है जिसका अहिंसात्मक होना जरूरी है, और इसलिए इसमें किसीको दण्डित करने या किसीसे बदला लेनेकी गुंजाइश नहीं है, और न ही यह द्वेष, दुर्भावना या घृणापर आधारित है। इससे निष्कर्ष यही निकलता है कि अगर मैं जनरल डायरकी सेवा करता हूँ और निर्दोष व्यक्तियोंको गोलियोंसे भूननेमें उन्हें सहायता देता हूँ तो यह पाप होगा। लेकिन अगर उन्हें कोई शारीरिक रोग हो और मैं उनकी सेवा-शुश्रूषा करके उन्हें स्वस्थ कर दूँ तो मैं अपनी क्षमाशीलता या प्रेमका परिचय दूँगा। इसे मैं सहयोग नहीं कह सकता लेकिन सर नारायण इसे शायद सहयोग ही कहेंगे। इस सरकारको इसकी अपराधवृत्तिसे विमुख करनेके लिए मैं इसके साथ हजार बार सहयोग करूँगा, लेकिन अपनी इस वृत्तिको चालू रखनेमें सहायता देनेके लिए मैं इसके साथ क्षण-भर भी सहयोग नहीं करूँगा। और अगर मैं इस सरकारसे प्राप्त कोई पदवी धारण किये रहूँ या "इसके अधीन कोई नौकरी करता रहूँ या कि इसकी अदालतों और स्कूलोंको अपना समर्थन दूँ" तो मैं गलत काम करनेका दोषी होऊँगा। जलियाँवालाके निर्दोष नर-नारियोंके रक्तसे सने हाथोंसे भेंट दी गई मूल्यवानसे-मूल्यवान निधि स्वीकार करनेकी अपेक्षा मैं भिखारीका जीवन विताना अधिक अच्छा समझँगा। हमारे सात करोड़ भाइयोंकी धार्मिक भावनापर निर्मम आघात करनेवालों के मधुर शब्दोंकी अपेक्षा मैं उनकी ओरसे अपने नाम जारी किये गये कैदके वारंटको अधिक श्रेयस्कर मानूँगा।

'गीता' को जिस रूपमें मैंने समझा है वह सर नारायणके समझनेसे बिलकुल उलटा है। मैं नहीं मानता कि 'गीता' भलाई करनेके बजाय हिंसाकी सीख देती है। यह मुख्यतः हृदयके भीतर छिड़े द्वन्द्वका ही वर्णन है। गीताकारने एक ऐतिहासिक घटनाका सहारा लेकर हमें यह सीख दी है कि प्राणोंको संकटमें डालकर भी अपने कर्त्तव्यका पालन करना चाहिए। यह फलाफलका ध्यान न रखते हुए कर्त्तव्यपालनकी सीख देती है, क्योंकि हम नश्वर प्राणियोंमें इतनी क्षमता नहीं है कि अपने कर्मके अतिरिक्त किसी और वस्तुपर नियन्त्रण रख सकें। 'गीता' प्रकाश और अन्धकारकी शक्तियोंमें भेद करते हुए दिखाती है कि इन दोनोंका संयोग नहीं हो सकता।

मेरी नम्र सम्मतिमें ईसा मसीह राजनीतिज्ञोंके सरताज थे। उन्होंने जो-कुछ सीजरको दिया जाना था, दिया। उन्होंने शैतानके गुणको भी स्वीकार किया; किन्तु दिया। वे उससे बराबर दूर रहे और एक बार भी शैतानके मायाजालमें न फँसे। उनके समयकी राजनीति यही थी कि जनताको पुरोहितों और फैरिसियोंके भुलावेमें न पड़नेकी सीख देकर उसका कल्याण किया जाये। उन दिनों फैरिसी लोग ही जन-जीवनका नियन्त्रण करते थे, उसको दिशा देते थे। आजकी शासन-प्रणाली ऐसी है कि उसका प्रभाव हमारे जीवनके हर क्षेत्रपर पड़ता है। यह हमारे अस्तित्वके लिए ही खतरा बन गया है। इसलिए अगर हम राष्ट्रके हितोंकी रक्षा करना चाहते हैं तो हमें शासकोंके क्रिया-कलापोंमें पूरी रुचि लेनी चाहिए और उनसे नैतिक नियमोंका पालन करनेका आग्रह करके उनपर नैतिक दबाव डालना चाहिए। जनरल डायरने