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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


लेकिन ऐसी सिद्धि चाहने-भरसे ही प्राप्त नहीं हो सकती। इसे कोई एक आदमी, चाहे वह कितना ही योग्य और तत्पर हो, प्राप्त नहीं कर सकता और अगर हम चाहें कि देश-भरमें स्वदेशी भण्डार खोलकर इसको प्राप्त कर लेंगे तो यह भी नहीं हो सकता। यह तो तभी प्राप्त हो सकती है जब हम नया उत्पादन करें, और समझदारीके साथ वितरण करें। उत्पादनका मतलब है लाखों स्त्रियोंका अपने घरोंमें कताईका काम करना। इसके लिए जरूरत है ऐसे उत्साही लोगोंकी सेवाकी जो ईमानदारीके साथ घर-घर धुनी हुई रुईका वितरण करें और फिर पारिश्रमिक देकर उन सबसे सुत प्राप्त करें। इस उत्पादनका मतलब है हजारों चरखे तैयार करना; और इसका मतलब है पुश्तैनी बुनकरों द्वारा फिरसे अपना यह नेक पेशा अपना लेना। इसका मतलब है घरोंमें काते गये सूतका इन बुनकरोंमें वितरण करना और उनसे कपड़े तैयार करवाना। इस तरह असहयोगके कार्यक्रममें स्वदेशीको एक शक्तिदायी साधनके रूपमें ही शामिल करनेकी बात मैं सोच सकता हूँ । लेकिन इस ढंगके स्वदेशीका तिरस्कार नहीं करना है। और मुझे आशा है कि अगर कोई कार्यकर्त्ता और कुछ न भी करे, पहले उत्पादन और फिर वितरणको बढ़ावा देकर स्वदेशीको आगे बढ़ाये तो ऐसा माना जायेगा कि उसने कुछ-न-कुछ तो किया ही। अगर वह, भारतमें पहले से ही जो कपड़ा तैयार किया जा रहा है, उसीके वितरणसे सन्तुष्ट रह जाता है तो उसका मतलब होगा कि वह एक ही घेरेके भीतर घूम रहा हैं।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २५-८-१९२०

 

११६. विदेशी मालका बहिष्कार बनाम असहयोग-कार्यक्रम

श्री कस्तूरी रंगा आयंगरने मेरी उन तमाम दलीलोंका जवाब दिया है जो मैंने मद्रास समुद्र-तटकी महती सभामें असहयोगके प्रथम चरणसे सम्बन्धित विभिन्न बातोंको विस्तारसे समझाते हुए उसके पक्षमें प्रस्तुत की थीं। सिवाय खिताब छोड़नेके उन्होंने मेरी और सारी बातोंसे असहमति प्रकट की है। उन्होंने अन्य मुद्दोंकी जगह विदेशी मालके बहिष्कारका सुझाव दिया। अब मैं जो-कुछ कहूँगा वह अपनी बातोंको दुहराना ही होगा, क्योंकि इस सम्बन्धमें 'यंग इंडिया' के पाठक मेरे सभी विचारोंसे अवगत हैं। फिर भी अब चूँकि श्री कस्तूरी रंगा आयंगर-जैसे योग्य पत्रकार बहिष्कारका समर्थन कर रहे हैं, इसलिए इस सवालपर मुझे विचार करना ही पड़ेगा।

पहली बात तो यह है कि ब्रिटिश मालके बहिष्कारकी कल्पनाके पीछे दण्ड देनेका भाव है, इसलिए असहयोगमें इसे कोई स्थान नहीं दिया जा सकता, क्योंकि असहयोगकी कल्पना तो आत्म-बलिदानके भावसे की गई है। और यहाँ सवाल एक पवित्र कर्त्तव्य निभानेका है।

दूसरे, अगर दण्डित करनेके लिए ही कोई कदम उठाना हो तो उसके पीछे जैसा प्रभाव उत्पन्न करनेका मन्तव्य है, वैसा प्रभाव उत्पन्न करनेके खयालसे उस कदममें