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विदेशी मालका बहिष्कार बनाम असहयोग-कार्यक्रम

तेजी होनी चाहिए, निश्चितता और पूरा जोर होना चाहिए। इसलिए अगर इस उपायका सहारा व्यक्तिशः लिया जाये तो यह बिलकुल बेकार होगा; क्योंकि अगर इसका उचित प्रभाव नहीं हुआ तो इससे कोई सन्तोष नहीं मिल सकता, जबकि असहयोग अपने-आपमें एक सन्तोषप्रद चीज है।

तीसरे, ब्रिटिश मालका बहिष्कार पूरी तरह अव्यवहार्य है, क्योंकि इसमें लखपतियों द्वारा अपने लाखों रुपयोंके बलिदानका सवाल आ जाता है। मेरे विचारसे जितना कठिन किसी वकीलके लिए अपना धन्धा बन्द कर देना, किसी खिताबयाफ्ता व्यक्तिके लिए अपना खिताब छोड़ देना या जरूरत पड़नेपर माता-पिताके लिए अपने बच्चोंकी किताबी शिक्षा बन्द कर देना है, उससे हजार गुना कठिन किसी लखपतिके लिए अपने लाखों रुपये बलिदान कर देना है। और फिर इस महत्त्वपूर्ण तथ्यका खयाल भी कीजिए कि व्यापारियोंने अभी हालमें राजनीतिमें दिलचस्पी लेना शुरू किया है। इसलिए वे अब भी बहुत डरते हुए सोच-सोचकर कदम रखते हैं। लेकिन जिस वर्गने असहयोगके प्रथम चरणका सम्बन्ध है, वह राजनीतिक वर्ग है जो वर्षोंसे राजनीतिमें हिस्सा लेता चला आ रहा है और इसलिए ऐसा नहीं कि वह मनसे सामूहिक बलिदानके लिए तैयार न हो।

अगर ब्रिटिश मालके बहिष्कारको प्रभावकारी बनाना हो तो या तो सारे देशको एक साथ ही उसका बहिष्कार करना चाहिए या बिलकुल करना ही नहीं चाहिए। यह फौजी घेरे-बन्दीके समान है। आप घेरा-बन्दी तभी कर सकते हैं जब आपके पास काफी लोग और विध्वंसक शास्त्रास्त्र हों। अगर कोई एक आदमी अपनी अँगुलियोंके नाखूनोंसे दीवारको खरोंचने लगे तो दीवारका कुछ भी नहीं बिगड़ेगा, अलबत्ता उसकी अँगुलियाँ जरूर क्षत-विक्षत हो जायेंगी। लेकिन अगर कोई खिताबयाफ्ता आदमी अपना खिताब छोड़ देता है तो उसे यह परम तोष मिलेगा ही कि जिसने उसे यह खिताब दिया था उसके पापसे वह अलग हो गया है, और इस तरह अगर दूसरे लोग अपने खिताब छोड़नेसे इनकार करते हैं तो उसका उसपर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा। चूँकि बहिष्कारके पीछे दण्ड देनेका भाव है, इसलिए यह असहयोगके सहज व्यावहारिकताके गुणसे वंचित है। इस भावके जोर पकड़नेसे राष्ट्रीय नव-निर्माणकी प्रक्रियामें बाधा पड़ेगी। बलिदानकी भावनाका मतलब है अपनी कमजोरियोंसे अपनेको मुक्त करनेका संकल्प। इसलिए यह एक शक्ति देनेवाली और हमें पवित्र बनानेवाली प्रक्रिया है, और इस तरह इसका उद्देश्य हमारी और जिनके आचरणसे असन्तुष्ट होकर हम इसके लिए तत्पर होते, उनकी भी भलाई करना है। और सबसे बड़ी बात तो यह है कि अगर भारतका अपना कोई उद्देश्य है तो उसे वह पाश्चात्य संसारके सन्दिग्ध उदाहरणका अनुकरण करके और इस तरह अपने बलिदानको भी भौतिक लाभकी आशासे दूषित करके पूरा नहीं कर सकता। उसे पूरा करनेका एकमात्र उपाय यही है कि वह विशुद्ध बलिदान करे——ऐसा बलिदान जो ईश्वरको भी प्रीतिकर हो।

[अंग्रेजी से]
यंग इंडिया, २५-८-१९२०