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भाषण : गुजरात राजनीतिक परिषद् में असहयोगपर

किसीपर जोर-जबरदस्ती करनेके लिए नहीं है। इस सुन्दर शस्त्रके उपयोगमें अधीरता या अशिष्टताके लिए कोई स्थान नहीं है। यदि प्रस्ताव नामंजूर हुआ तो मुझे दुःख होगा किन्तु निराशा कदापि नहीं होगी और उसके कारण मैं इस शस्त्रका उपयोग करना बन्द भी नहीं करूँगा। जिन लोगोंने जनताकी सेवा की है उनकी बात हमें सुननी ही चाहिए। जो लोग हमें चेतावनी देते हैं उनकी बात यदि हम नहीं सुनते तो फिर हम किस कामके लायक है? हमें तो बालकके विरोधको भी विनयपूर्वक सुनना चाहिए। यह हमारा कर्त्तव्य है। विनय ही असहयोगकी पहली और अन्तिम सीढ़ी है। असहयोगके शस्त्रका उपयोग हमें वैर-भावसे नहीं करना है। मौलाना शौकत अलीने भी, जो सगे भाईसे भी ज्यादा एकतापूर्वक हमारा साथ दे रहे हैं, वैर-भावका सम्पूर्ण त्याग किया है। जो लोग इस शस्त्रको वैर-भावसे चलाना चाहते हैं उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी। जो लोग असहयोगका विरोध कर रहे हैं वे दो बातें कहते हैं: एक तो यह कि उसमें जोखिम है और दूसरी यह कि भारतकी जनता उसके अयोग्य है। जिस सरकारके पास अनेक साधन हैं और जो पूरी तरह एकमत होकर काम करती है और जिसकी जातिके लोग संकटमें एकाएक घबराते नहीं हैं, उसके खिलाफ लड़नेमें हम इस शस्त्रका प्रयोग कर रहे हैं तो इसमें जोखिम तो है ही। किन्तु जोखिम उठाये बिना उसे मात देना भी असम्भव है। अंग्रेज जातिने कभी ऐसा कोई काम नहीं किया जिसमें जोखिम न रहा हो। मुट्ठी भर अंग्रेज, हम बत्तीस करोड़ भारतवासियोंपर राज्य कर रहे हैं, इसमें क्या वे कोई जोखिम नहीं उठाते? जर्मन लोगोंके खिलाफ पूरी तैयारी किये बिना ही लड़नेवाले इस राष्ट्रने क्या जोखिम नहीं उठाया होगा? जोखिम उठाये बिना तो हम कुछ कर ही नहीं सकते। किन्तु यह बात ठीक है कि जोखिममें और अपनी प्राप्य वस्तुमें कुछ सन्तुलन होना चाहिए। मुझे लगता है कि असहयोग एक ऐसा शस्त्र है जिसमें जोखिम कम है और जो हमारे उद्देश्यकी प्राप्तिमें उपयोगी भी होगा। ऐसा कोई दूसरा व्यावहारिक शस्त्र जिसमें इसकी अपेक्षा कम जोखिम हो कोई बता ही नहीं सकता। ३५ वर्षसे कांग्रेस हमारी जो सेवा करती आ रही है उसे हमें भूलना नहीं है। उसके कारण ही हमें यह शस्त्र प्राप्त हुआ है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि हम लकीरके फकीर बनें रहें। सच्चा बेटा तो वह है जो अपने बापकी सम्पत्तिको बढ़ाये। कुछ लोग कहते हैं कि असहयोगको अपनानेसे कांग्रेसका विधान भंग होता है। लेकिन ऐसा कहनेके लिए कोई उचित कारण नहीं है। अलबत्ता सरकारको इससे परेशानी होगी। किसी शराबी से उसकी शराबकी बोतल छीन लें तो उसे कष्ट होगा ही। सरकारके साथ असहयोग करना उससे भी ज्यादा बड़ी चीज है। सरकारकी सहायता करना तो अधर्म है। यदि वह जानती कि भारतकी जनता इसका विरोध करेगी तो खिलाफतका निर्णय जैसा हुआ है वैसा होता ही नहीं। मैं यह नहीं मानता कि खिलाफतका निर्णय दूसरे राष्ट्रोंने किया है। हमारे महान् मन्त्री ऐसे हैं कि उन्हें तो वे घोलकर ही पी जायें। टर्कीके साथ जिन्होंने अन्याय किया है, उनसे सहयोग करना अधर्म है और हमें ज्यादासे-ज्यादा जोखिम उठाकर भी इस अधर्मसे दूर रहना चाहिए। प्रह्लाद-जैसा बालक भी असह-