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१२६. वाइसरायकी अधिघोषणा

अब मुझे यह विश्वास नहीं रहा कि परमश्रेष्ठमें भारतके वाइसरायके ऊँचे पदपर बने रहनेकी ईमानदारी और योग्यता है; इसलिए हो सकता है कि अब मैं उनके भाषणोंको अपने मनमें पूर्वग्रह रखकर पढ़ने लगा हूँ। लेकिन परमश्रेष्ठने कौंसिलके सत्रका उद्घाटन करते हुए जो भाषण दिया, उससे उनके सोचनेका तरीका कुछ ऐसा जान पड़ता है कि किसी भी आत्मसम्मानी व्यक्तिके लिए उनसे या उनकी सरकारसे कोई सम्बन्ध कायम रखना असम्भव हो गया है।

उन्होंने पंजाबके सम्बन्धमें जो बातें कहीं, उनका मतलब है इस मामलेमें लोगोंकी शिकायत दूर करनेसे साफ इनकार करना। उनकी इच्छा है कि हम "अपना ध्यान निकट भविष्यको समस्याओं पर केन्द्रित करें"। हमारे लिए तो "निकट भविष्यकी समस्या" यही है कि सरकारको पंजाबके मामलेमें पश्चात्ताप करनेके लिए विवश कर दें। लेकिन इसका कोई लक्षण दिखाई नहीं देता। उलटे, परमश्रेष्ठ अपने आलोचकोंको उत्तर देनेसे भी कतरा रहे हैं, जिसका मतलब यह है कि उन्होंने भारतके सम्मानसे सम्बन्ध रखनेवाले बहुत-से महत्त्वपूर्ण मामलोंमें अपने विचार बदले नहीं हैं। वे "इन सवालोंको इतिहासके निर्णयपर छोड़कर सन्तुष्ट" हैं। मेरा तो खयाल है कि इस तरहकी भाषाका प्रयोग भारतीय मानसको और भी क्षुब्ध करनेके लिए ही किया जाता है। जिन लोगोंके साथ अन्याय किया गया है और जो अब भी ऐसे अधिकारियोंके पैरों तले कुचले जा रहे हैं जिन्होंने अपने ही आचरणसे स्वयंको किसी भी महत्त्व और दायित्वका पद सँभालनेके लिए सर्वथा अयोग्य सिद्ध कर दिया है, उन लोगोंके लिए इतिहासके अनुकूल निर्णयका भी क्या उपयोग है? सहयोगके लिए जो दलीलें दी गई हैं उनके बारेमें अगर कमसे-कम कहा जाये तो पंजाबके साथ न्याय न करनेके संकल्प-पर डटी सरकारका यह एक फरेब ही है। जो रोगी असह्य पीड़ासे छटपटा रहा हो उसके सामने बहुत ही सुस्वादु व्यंजन परोसनेसे क्या उसका दुःख दूर हो जायेगा? अगर कोई वैद्य उसे पीड़ासे मुक्त किये बिना इस तरह ललचाता हो तो इसे क्या वह अपना मजाक उड़ाना नहीं मानेगा?

खिलाफतके सवाल पर परमश्रेष्ठका रुख शायद इससे भी बुरा है। जिस व्यक्तिके हाथोंमें इस राष्ट्रका भाग्य सौंप दिया गया है, वह कहता है "शान्ति-सम्मेलनमें सरकारसे जहाँतक बन पड़ा, उसने भारतीय मुसलमानोंका दृष्टिकोण स्वीकार करानेके लिए पूरा जोर डाला है। लेकिन हमने उनके लिए जो प्रयत्न किये, उनका कोई खयाल न करते हुए वे हमें इसलिए असहयोग आन्दोलनकी धमकी दे रहे हैं कि मित्र-राष्ट्रोंके लिए भारतीय मुसलमानोंकी माँगें स्वीकार करना सम्भव नहीं हुआ।" यह बात अगर झूठी नहीं तो निश्चितरूपसे बहुत भ्रामक तो है ही। परमश्रेष्ठ जानते हैं कि शान्ति-सन्धिकी शर्तें मित्र-राष्ट्रोंने तय नहीं कीं। वे जानते हैं कि इन शर्तोंके