प्रकारके हिंसात्मक कृत्य भी करते हैं। वे लोग ऐसी हत्या या आगजनी करनेवाले प्रत्येक व्यक्तिको वीरात्माके रूपमें देखते हैं। मुझे आशंका थी कि खिलाफतको लेकर कहीं हमारे बीच भी ऐसी ही बातें न होने लगें। यही कारण था कि मैंने इसके सम्बन्धमें शान्तिमय असहयोगका मार्ग सुझाया। मेरी रायमें असहयोगका जो सक्रिय और खुले तौरपर प्रचार किया गया है, उसीका यह परिणाम है कि इस देशमें हत्याएँ और कत्ल नहीं हो रहे हैं। श्री विलोबीकी हत्यासे यही प्रमाणित होता है कि अहिंसा और असहयोगका प्रचार इक्के-दुक्के धर्माधोंको नियन्त्रित करनेमें समर्थ नहीं हो पाया है और यह कोई आसान काम भी नहीं है। इससे यह भी प्रमाणित होता है कि खिलाफत-सम्बन्धी अन्याय एक ऐसी शिकायत है जिसकी जड़ गहरी है, और जो समयके साथ-साथ विस्मृत होनेके बजाय और भी गहराईमें उतरती चली जायेगी।
मैं देखता हूँ कि 'टाइम्स ऑफ इंडिया'ने इस हत्याके लिए खिलाफत सम्बन्धी प्रचारको जिम्मेदार ठहराया है और इस हत्याको उस आन्दोलनका "पहला फल" बताया है। मुझे लगता है कि इस पत्रने भाषाके प्रयोगमें बड़ी सावधानी बरती है। वह "इस आन्दोलनके कुछ पहलुओं" से ही इस अपराधका सम्बन्ध जोड़ता है। परन्तु मैं कहूँगा कि उस दुर्भाग्यपूर्ण हत्याके लिए इस आन्दोलनका कोई भी पहलू जिम्मेदार नहीं है। इस निर्मम कृत्यकी प्रेरणा ब्रिटिश मन्त्रियों द्वारा किये गये भीषण अन्यायसे ही मिली है।
'टाइम्स ऑफ इंडिया' का यह कथन कि यह दुःखद घटना "इस्लाम धर्मके लिए एक विशेष चेतावनी है, क्योंकि सभी विचारवान मुसलमानोंको समझना चाहिए कि उनके धर्मको प्रतिष्ठा खतरेमें है", अपेक्षाकृत अधिक सुदृढ़ आधारपर स्थित है। मैं भी इस चेतावनीपर बल देना चाहूँगा। खिलाफत आन्दोलनके प्रत्येक कार्यकर्त्ता का यह विशेष कर्त्तव्य होना चाहिए कि वह असहयोगको सफल बनानेकी शर्तके रूपमें उसे हिंसासे पूरी तरह अलग रखनेपर अब और ज्यादा जोर दे। मुझे पूरा विश्वास है कि निर्दोष व्यक्तियोंकी हत्याके विरुद्ध 'कुरान'की आयतोंसे भी प्रमाण दिये जा सकते हैं। अन्यायीको न्याय देनेपर मजबूर करनेके लिए उसके प्रति हिंसात्मक व्यवहार किया जाये, यह बात मैं भी समझ सकता हूँ। दुर्भाग्यसे आज सभ्य संसारने इसी मार्गको अपना रखा है। उसका समर्थन धर्मग्रन्थोंमें भी मिलता है। कहते हैं, इस्लाममें अत्याचारीके प्रति हिंसा करनेका स्पष्ट आदेश है। ईसाई धर्मके तथाकथित अनुयायी अन्यायोंको——चाहे वे काल्पनिक हों या वास्तविक—— दूर करनेके लिए संगठित युद्धको उचित ठहराते हैं। हजारों हिन्दू 'गीता' की ऐसी व्याख्या करते हैं जिससे वह न्यायकी खातिर युद्धको उचित ठहरानेवाली प्रमाण-पुस्तक सिद्ध होती है। ऐसे लोग थोड़े ही हैं (परन्तु इनकी संख्या निरन्तर बढ़ती चली जा रही है) जो धार्मिक निष्ठाके साथ ऐसा मानते हैं कि हिंसा स्वयंमें गलत है और उसका औचित्य तब भी नहीं ठहराया जा सकता जब उसका उपयोग सत्यकी प्रतिष्ठाके लिए किया जाये। परन्तु किसी निर्दोष, निहत्थे व्यक्तिको बिना किसी चेतावनीके मौतके घाट उतारना ('सभ्य' भले माना जाये) धार्मिक कृत्य नहीं हो सकता। खिलाफतके कार्यकर्त्ताओंके लिए इस कृत्यकी