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डिप्टी कमिश्नरकी हत्या


उपर्युक्त कार्यक्रममें समस्त जनताके लिए कुछ-न-कुछ करनेकी बात तो आ ही जाती है। एक दूसरे की राह देखते हुए बैठे रहनेसे काम नहीं चल सकता, लेकिन जिनसे जितना हो सके उतना उन्हें कर देना चाहिए।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ५-९-१९२०

 

१३४. डिप्टी कमिश्नरकी हत्या

जब मैंने सुना कि एक मुसलमानने डिप्टी कमिश्नर श्री विलोबीकी हत्या कर दी है तब मुझे लगा कि मैं वहाँ होता तो कितना अच्छा होता और यदि वह घातक प्रहार मुझपर हुआ होता तो मैं उससे इस्लाम और देशकी जितनी सेवा कर सकता उतनी और किसी ढंगसे न कर पाता। उस अवसरपर मेरी मृत्यु होनेका परिणाम यह होता कि सारे संसारको हमारे संघर्षकी शुद्धतापर विश्वास हो जाता और उसी विश्वासमें हमारी विजयका मूल निहित है।

इस हत्यासे हमें नुकसान हुआ है। हमारे शान्तिपूर्ण संघर्षमें थोड़ा-सा अशान्तिका तत्त्व समाविष्ट हो गया है। सामान्य अंग्रेज जितनी निर्भयताका अनुभव करते थे उसमें अपेक्षाकृत ह्रास हुआ है। इससे वैर बढ़ेगा और दमनका चक्र शुरू होगा। हमारी भूलके परिणामस्वरूप इस दमन-चक्रसे हमारा नुकसान हुए बिना नहीं रहेगा।

हमारे संघर्षमें कुछ भी गुप्त नहीं है। हम मन-ही-मन जो विचार करते हैं उन्हें खुले आम कहते हैं। हम असहकारकी इस लड़ाईमें कदापि हिंसा नहीं करना चाहते, इसलिए हमें इस हत्याकी भर्त्सना करनी चाहिए। हमें न केवल समाचारपत्रों, सभाओं व निजी बातचीतमें इसकी निन्दा करनी चाहिए बल्कि अपने मनमें भी इसकी निन्दा करनी चाहिए।

मैं इस समय जो लिख रहा हूँ वह मेरी अहिंसाकी कल्पनापर ही लागू होता हो सो बात नहीं। यह तो मैं नीतिके सर्वसाधारण सिद्धान्तोंको ध्यानमें रखकर लिख रहा हूँ।

यदि हम असहकारको हिंसाके बिना ही चलाना चाहते हों तो हमें हिंसाको बन्द करना अपना प्रथम कर्त्तव्य मानना चाहिए। हिंसाके त्याग करनेका दावा करते हुए भी यदि हम गुप्त अथवा प्रगट रूपसे हिंसाका समर्थन करते हों तो यह विश्वासघात करना ही माना जायेगा।

हिंसा होनेसे जनता असहकार आन्दोलन नहीं चला सकती। समस्त हिन्दुस्तानमें आतंकका साम्राज्य हो और जनता स्वयमेव भयभीत हो जाये तो फिर असहकार करनेको कोई रह ही नहीं जायेगा। यह बात ऐसी है जो तुरन्त सबकी समझमें आ जानी चाहिए और असहकार आन्दोलन चलानेवाले प्रमुख व्यक्तियोंकी समझमें यह बात आ गई है। इसी कारण यह आन्दोलन बिना किसी प्रकारकी हिंसाके चल रहा है।