तथापि मैं जानता हूँ कि कुछ-एक मुसलमान और हिन्दू इस तरह की हिंसाको पसन्द करते हैं। आयरलैंडमें होनेवाले हत्याकांडको अनेक लोग बड़ी दिलचस्पीके साथ पढ़ रहे हैं। अनेक लोगोंकी यह मान्यता है कि यदि बम विस्फोट न होता तो बंगाल फिरसे एक न होता। कोई-कोई यह मानते हैं कि ढींगरा द्वारा की गई हत्यासे लाभ हुआ है। मेरी तो दृढ़ मान्यता है कि हिंसासे कोई फायदा नहीं होता और इससे कभी-कभी क्षणिक लाभ होता दिखाई देता है किन्तु वह अन्ततः हानिकारक होता है। अंग्रेजोंकी विजयको मैं पराजय मानता हूँ, उनमें पापकी वृद्धि हुई है। लोभ, दम्भ, क्रोध, असत्य और अन्यायकी उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है; मदकी कोई सीमा नहीं है। जर्मनोंके पास ऐसे अवगुणोंके विकासका अब अवकाश ही नहीं रह गया है। वे अन्याय [करें तो] किसके प्रति करें? उनके क्रोध करनेसे भी क्या लाभ होगा?
जो लोग हिंसाके सिद्धान्तको माननेवाले हैं उनसे भी कमसे-कम मैं इतना अनुरोध तो अवश्य करूँगा कि वे दो घोड़ोंपर एक साथ सवार नहीं हो सकते। या तो हम निःशस्त्र असहकार चलायें अथवा उसका पूर्णतया त्याग करें।
यह सब लिखनेका मेरा उद्देश्य यह नहीं है कि हमारे लिए असहकारको छोड़नेका समय आ गया है; लेकिन मैं असहकार आन्दोलन चलानेवालोंको चेतावनी देना चाहता हूँ। वास्तविक भय कहाँ है यह बताना चाहता हूँ। श्री विलोबीका हत्यारा तो कदाचित् असहकार शब्दसे परिचित भी नहीं होगा; तथापि हमारी सफलताकी कुंजी हिन्दुस्तानके प्रत्येक व्यक्तिको नियन्त्रणमें रखनेमें है। यदि हममें यदा-कदा की जानेवाली हत्याओं को रोकनेकी शक्ति नहीं है तो हमारा संघर्ष कदापि आगे नहीं चल सकता।
इनको हम किस तरह रोक सकते हैं? वातावरणमें परिवर्तन करनेसे। और यह तभी संभव हो सकता है जब असहकार-आन्दोलन चलानेवाले लोग उसके स्वरूप और उसकी शर्तोंको अच्छी तरह समझ लें। उसकी पहली शर्त यह है कि हम प्रत्येक अंग्रेजके प्राणोंके रक्षक बनें, और अपने आसपासके लोगोंको दलीलोंसे, उदाहरणोंसे समझायें कि हमारी विजयका पूर्ण आधार हिंसासे दूर रहनेमें है।
नवजीवन, ५-९-१९२०