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भाषण : कलकत्तेकी विशेष कांग्रेसमें

त्याग और अनुशासनकी शिक्षा

असहयोगके सिवा एक और मार्ग लोगोंके सामने था और वह था तलवार उठानेका। परन्तु भारतके पास इस समय तलवार नहीं है। यदि उसके पास तलवार होती तो मैं जानता हूँ कि वह असहयोगकी इस सलाहको सुनता तक नहीं, परन्तु मैं तो आपको यह बता देना चाहता हूँ कि आप अनिच्छुक शासकोंके हाथों रक्तपातके मार्ग द्वारा जबरन न्याय प्राप्त करना चाहते हों, तो उस मार्गमें भी आवश्यक अनुशासन और त्यागके बिना आपका काम नहीं चलेगा। मैंने आजतक नहीं सुना कि जिसमें कोई तालमेल न हो ऐसी किसी भीड़ने कभी लड़ाई जीती हो। परन्तु कवायदी सेनाको लड़ाई जीतते मैंने और आपने भी देखा है। आपको ब्रिटिश सरकार या यूरोपकी सम्मिलित ताकतसे लोहा लेना हो तो हमें अनुशासन और त्याग पैदा करना ही होगा। मैं लोगोंको उस अनुशासन और त्यागकी स्थितिमें पहुँचा हुआ देखनेको उत्सुक हूँ। उस स्थितिको देखनेको मैं उतावला हूँ। बुद्धिवलमें हम पिछड़े हुए नहीं हैं। परन्तु मैं देखता हूँ कि राष्ट्रीय पैमानेपर अभीतक हममें त्याग और अनुशासन नहीं आया है। कौटुम्बिक क्षेत्रमें तो हमने अनुशासन और त्यागका जितना विकास किया है उतना संसारके और किसी राष्ट्रने नहीं किया। उसी वृत्तिको राष्ट्रीय व्यवहारमें भी दिखानेका इस समय मैं आपसे अनुरोध कर रहा हूँ।

विजयके मूलाक्षर

मैं भारतके एक सिरेसे दूसरे सिरेतक इसी बात का पता लगाता घूम रहा हूँ कि लोगोंमें सच्ची राष्ट्रीय भावना आई या नहीं, लोग राष्ट्रकी वेदीपर अपना धन, अपनी सन्तान और अपना सर्वस्व बलिदान करनेको तैयार हैं या नहीं? और यदि लोग कुछ भी बाकी रखे बगैर अपना सब कुछ होम देने को आज तैयार हों तो इसी क्षण मैं स्वराज्य आपके हाथमें रखवा देने को तैयार हूँ। इतना त्याग करनेको लोग तैयार हैं? पदवीधारी अपनी पदवियाँ और सम्मानके पदोंको छोड़ देनेको तैयार हैं? माँ-बाप देशकी लड़ाई लड़नेके लिए अपने बच्चोंकी किताबी शिक्षाका बलिदान करनेको तैयार हैं? मैं तो कहता हूँ कि जबतक हम यह मानते रहेंगे कि जो स्कूल-कालेज सरकारके लिए क्लर्क बनानेके कारखाने मात्र हैं, उनमें बच्चोंको न भेजनेसे हम बच्चोंकी शिक्षाका बलिदान करते हैं, तबतक स्वराज्य हमसे सैकड़ों कोस दूर है। अन्य राष्ट्रोंके हाथों दबी हुई कोई भी जनता एक तरफ उसकी मेहरबानी स्वीकार करती रहे और दूसरी ओर शासक जनतापर जो बोझ और जिम्मेदारी डालें उन्हें वह हटाती रहे, यह नहीं हो सकता। विजेताओंकी तरफसे होनेवाली कोई मेहरबानी विजित जातिके कल्याणके लिए नहीं परन्तु शासकोंके लाभके लिए ही होती है, यह बात जिस क्षण किसी भी पराधीन जातिको सूझ जाती है, उसी क्षणसे वह जाति शासकोंको हर प्रकारकी स्वेच्छापूर्ण सहायता देना बन्द कर देती है और उस प्रकारकी सहायता लेनेसे साफ इनकार कर देती है। हमारी आजादीकी लड़ाईकी जीतके ये मूलाक्षर हैं। फिर भले ही वह आजादी साम्राज्यके भीतर हो या बाहर।