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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

इज्जत-आबरूके लिए

मैं चाहता हूँ कि मेरे देशबन्धु मेरी यह बात अच्छी तरह समझ लें; और यदि यह बात उनके गले न उतरी हो तो मेरा प्रस्ताव नामंजूर कर देना ही उनका कर्त्तव्य होगा। हिन्दू-मुसलमानके बीच सच्ची एकताको मैं ब्रिटिश सम्बन्धसे हजारों गुना अधिक मूल्यवान् मानता हूँ और यदि उस सम्बन्ध और हिन्दू-मुस्लिम एकता, इन दोनोंमें से किसी एकको ही चुननेकी नौबत आ जाये, तो मैं हिन्दू-मुस्लिम एकताको ही पसन्द करूँगा और ब्रिटिश सम्बन्धको छोड़ दूँगा। इसी प्रकार एक तरफ पंजाब और सारे भारतकी इज्जत और दूसरी ओर भारतमें कुछ समयतक अन्धेर, लड़कोंकी शिक्षाकी बर्बादी, अदालतों और धारा सभाओंकी बन्दी और ब्रिटिश सम्बन्धका त्याग——इनके बीच चुनाव करना पड़े, तो भी पंजाब और भारतका सम्मान और उसके साथ आनेवाली अराजकता और स्कूलों, अदालतों वगैरहके बन्द होने और इनके साथ जुड़ी हुई तमाम अव्यवस्थाका मैं जरा भी आनाकानी किये बिना स्वागत करूँगा। आपका जी भी उतना ही जल रहा हो, आप भी इस्लामकी इज्जत अक्षुण्ण रखनेको मेरे जितने ही उत्सुक हों, पंजाबकी इज्जत निष्कलंक करनेको तड़प रहे हों तो बिना संकोचके आपको यह प्रस्ताव मंजूर कर लेना चाहिए।

धारा सभाओंका बहिष्कार

परन्तु इतना ही काफी नहीं है। मुद्देकी असल बातपर तो अभीतक मैं आया ही नहीं। वह बात यह है कि धारा सभाओंका, उम्मीदवार तथा मतदाता पूर्ण बहिष्कार करें। इस समय यही मुद्देका प्रश्न हो गया है, और मैं जानता हूँ कि अन्य छोटी-मोटी बातोंमें समझौता हो जायेगा; यदि इस सभाका मत-विभाजन होगा तो वह इसी बातपर होगा। धारा सभाओं द्वारा स्वराज्य मिलेगा या धारा सभाओंका त्याग करके? क्या सचमुच धारा सभाओं द्वारा स्वराज्य लेनेकी बातमें लोगोंको विश्वास है? इस सम्बन्धमें मैं इस समय अधिक बहस नहीं करूँगा। धारा सभाओंका बहिष्कार न करनेके पक्षमें जो-जो दलीलें पेश होंगी, उनका जवाब मैं बाद में दूँगा। अभी तो इतना ही कहूँगा कि यदि ब्रिटिश सरकार और उसके मौजूदा अधिकारियोंपर से हमारा विश्वास बिलकुल ही उठ गया हो, यदि हम यह मानते हों कि ब्रिटिश सरकारको अपने दुष्कृत्योंके लिए किसी भी तरहका पश्चात्ताप नहीं हुआ तो आप यह मान ही कैसे सकते हैं कि इन सुधारोंके जरिये अन्तमें स्वराज्य मिल जायेगा?

स्वदेशी

मैं यह अवश्य चाहता हूँ कि लोग विदेशी मालका बहिष्कार करें परन्तु मैं यह भी जानता हूँ कि इस समय यह बात नहीं हो सकती। जबतक हमें सूई-काँटेके लिए भी विदेशोंका मुँह ताकना पड़ता है, तबतक विदेशी मालका बहिष्कार असम्भव है। परन्तु यदि आप लक्ष्यतक पहुँचनेको अधीर हो गये हों और कोई भी कुर्बानी करनेको तैयार हों, तो मैं स्वीकार करता हूँ कि विदेशी मालका बहिष्कार करते ही पलक मारते भारत अपनी आजादी प्राप्त कर सकता है। इसलिए मैंने आनाकानी