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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/२९९

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भाषण : असहयोग प्रस्तावकी आलोचनाके उत्तरमें


एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात है, जिसे आपके सामने स्पष्ट कर देना चाहिए। मेरा कहना है कि मैंने असहयोगका जैसा कार्यक्रम तैयार किया है अगर आप उसे कार्यान्वित करना चाहते हों तो आपसे अपेक्षा की जाती है कि यदि तनिक भी सम्भव हो तो आप कल ही अपने बच्चोंको स्कूलोंसे हटा लें और वकील लोग कलसे ही अपनी वकालत बन्द कर दें। आप हमारे अभियानके क्रममें देखेंगे कि हम यह अनुरोध आपसे बार-बार करेंगे——यह आवाज आपके कानोंतक बार-बार पहुँचायेंगे। लेकिन जैसा मैंने कहा है, अगर आप इस कामके लिए तत्काल तैयार न हों तो मैंने प्रस्तावमें जिस क्रियाविशेषणका प्रयोग किया है उसके अनुसार आपको सोचनेके लिए पर्याप्त समय मिल जाता है। श्रोताओंमें से कुछ लोगोंने इन दो बातोंका जो अर्थ लगाया है, उसे मैं स्वीकार नहीं करता। उनका कहना है कि क्या यह ठीक नहीं होगा कि बच्चोंको राष्ट्रीय शालाओंकी स्थापनाके बाद ही स्कूलोंसे हटाया जाये और वकील पंचायती अदालतें कायम होनेके बाद ही वकालत बन्द करें। यह तो मेरे विचारसे, बिना बुनियादके इमारत खड़ी करने-जैसी बात है। जबतक हमें राष्ट्रीय शालाओंमें पढ़नके लिए पर्याप्त विद्यार्थी नहीं मिल जाते तबतक मैं स्कूली-इमारतोंकी सुन्दर कतार या फूसकी कुटिया तक खड़ी नहीं कर सकता। जब कोई देश युद्ध-रत रहता है——चाहे वह युद्ध हिंसात्मक हो या अहिंसात्मक——तो उसके लिए यह एक अनिवार्य स्थिति होती है कि वह अपने स्कूल और अदालतें बन्द कर दे। मैंने दो युद्ध तो स्वयं ही झेले हैं। इन दोनों युद्धोंके दौरान सम्बन्धित देशोंके सभी स्कूल बन्द रहे और यही बात अदालतोंके सम्बन्धमें भी हुई। कारण शायद यही था कि वादियों-प्रतिवादियोंके पास अपने निजी झगड़ोंके बारेमें सोचनेका समय नहीं था और बच्चोंके माता-पिता इस निष्कर्षपर पहुँचे कि राष्ट्रके इतिहासके इस नाजुक दौर में उनके लिए उत्तम शिक्षा यही होगी कि उस संकट-कालमें शिक्षा जारी रखनेकी बुराईके बजाय कुछ समयतक वह स्थगित रहे। ये दोनों बातें इस सम्बन्धमें हमारी भावनाकी तीव्रता की कसौटी हैं, और अगर राष्ट्रकी भावना तीव्र है तो वह इन दोनोंको अवश्य ही कार्यान्वित करेगा।

इस बातपर बहुत ज्यादा जोर दिया गया है कि यह कार्यक्रम प्रारम्भ करनेके लिए सूचना बहुत कम समय की दी गई है। अगर तथ्य वैसे ही होते जैसा लोग मानते हैं, तो मेरे खयालसे यह दलील बहुत ठोस होती। लेकिन यह बात श्री पाल और श्री जिन्नाके ध्यानसे भी शायद उतर गई है कि पूर्व-सूचनाका सवाल तो, दरअसल कार्यक्रममें कुछ नई बातें——अर्थात् स्वराज्यकी माँग आदि——शामिल करनेसे ही उठा है। अगर हम स्वराज्यकी नई माँग करते तो यह दलील निर्णायक होती। एक सम्माननीय और शालीन राष्ट्रके नाते हमें ब्रिटिश लोगोंको बहुत स्पष्ट और जोरदार शब्दोंमें इस बातकी सूचना पहले ही दे देनी चाहिए, लेकिन मेरे कार्यक्रममें यह बात इस रूपमें नहीं रखी गई है। मैंने यह कहा है कि स्वराज्यके बिना पंजाबके ढंगके अन्यायोंकी पुनरावृत्ति रोक पाना असम्भव है, इसलिए इस कार्यक्रममें स्वराज्यकी माँग कोई स्वतन्त्र माँग नहीं है। यह माँग इसलिए की गई है कि कांग्रेसके विचारसे, भविष्यमें