यह ठीक मानते हैं कि हमारे शरीरका एक चौथाई हिस्सा एक ओरको शक्ति लगाये और तीन चौथाई दूसरी ओरको? अगर वे समानान्तर चलें तो मैं इसे तो समझ सकता हूँ, लेकिन यहाँ तो वे एक-दूसरेकी विपरीत दिशाओंमें जोर लगायेंगे और क्या यह ठीक होगा कि वे ऐसा करें? अगर मुसलमान लोग कौंसिलोंको पाप मानकर उससे अलग रहें तो क्या हिन्दू रोध-अवरोधकी नीतिसे भी कुछ पा सकते हैं? इस्लाममें धर्मकी स्थिति यही है। वे मानते हैं कि कौंसिलोंमें जाकर वफादारीकी शपथ लेना पाप है। भारतके व्यावहारिक लोगों और राजनीतिज्ञोंको इस निश्चित तथ्यकी ओरसे अपनी आँखें बन्द नहीं कर लेनी चाहिए। अगर वे सोचते हों कि वे मुसलमानोंके दिमागको बदल देंगे और मुसलमानोंके ये संकल्प एक सदेच्छा-मात्र है तब तो निश्चय ही मेरी इन दलीलोंमें कोई दम नहीं है। लेकिन अगर आप मानते हों कि मुसलमान यह सब कर गुजरनेको व्यग्र हैं, वे इस अन्यायका अनुभव करते हैं, और जैसे-जैसे समय बीतता जायेगा, इस अन्यायका असर मिटने और इसे भुला दिये जानेके बजाय यह प्रति दिन और भी तीव्र होता चला जायेगा, तो आप समझ जायेंगे कि समयके साथ-साथ मुसलमानोंकी शक्ति बढ़ती चली जायेगी——चाहे हिन्दू उनकी मदद करें या न करें। अब यही वह सवाल है, जिसपर कांग्रेसको निर्णय करना है। इसलिए मेरा नम्र निवेदन है कि मैंने ये कदम पूरी तरह विचार करके ही उठाये हैं, और मेरे लिए यह कोई आनन्द और प्रसन्नताकी बात नहीं है कि मैं——एक मामूली और अकेला व्यक्ति जिससे हर क्षण भूल होनेकी सम्भावना है——देशके अच्छेसे-अच्छे नेताओंके विरुद्ध खड़ा होऊँ। लेकिन यहाँ सवाल कत्तव्य-पालनका है। मैं स्पष्ट देख रहा हूँ अगर हम हिन्दुओं और मुसलमानोंके सम्बन्ध सुदृढ़ और स्थायी बनाना चाहते हैं तो जबतक वे सही मार्गपर हों, जबतक वे शुद्ध तथा सच्चे साधनोंका सहारा लेकर चल रहे हों, जबतक वे ऐसी माँगें न कर रहे हों जो उनके बूतेके बाहर हों, और जबतक वे हिंसापर उतारू न हों तबतक उनके साथ पूरा सहयोग करनेके अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
और भी बहुत-सी बातें कही गई हैं, जिनका जवाब मैं दे सकता था। लेकिन अबतक आपके धैर्यकी बहुत ज्यादा परीक्षा ले चुका हूँ इस प्रस्तावके पक्ष-पोषक के रूपमें नहीं, बल्कि मैंने सर्वथा निरपेक्ष भावसे आपके सामने एक-एक दलील पेश कर दी है, और यहीं मेरा कर्त्तव्य समाप्त हो जाता है। मैं आपको विश्वास दिलाता हूँ मैंने आपके सामने एक निर्णायककी तरह सारी दलील बहुत ही सीधे और सही ढंगसे पेश करनेकी कोशिश की है, और अगर मेरे लिए एक निर्णायककी निरपेक्षतासे बोलना तनिक भी सम्भव हो पाया है तो उसके लिए मैं पण्डित मालवीयका बहुत ऋणी हूँ। उनके साथ मेरा जो सम्बन्ध है, वह देशको मालूम नहीं है। उन्हें सन्तुष्ट करनेके लिए, उन्हें प्रसन्न करनेके लिए मैं अपने प्राणतक उत्सर्ग कर सकता हूँ और उनका अनुगमन करूँगा। लेकिन जब सवाल पवित्र कर्त्तव्य और विश्वासका हो जाता है तो मैं अन्य सभी दायित्वोंसे मुक्त हो जाता हूँ। सच तो यह है कि ऐसी स्थितिमें स्वयं वे ही मुझे अपना अनुगमन करनेके दायित्वसे मुक्त कर देते हैं; और अपने इस पूज्य