१५२. टिप्पणियाँ
रेलोंमें होनेवाली चोरियाँ
मुझे गरीब व्यक्तियोंकी ओरसे शिकायतें मिलती रहती हैं कि रेलों द्वारा भेजा गया उनका माल प्रायः चोरी हो जाता है। किसीने सूत भेजा वह चुरा लिया गया। फलोंकी चोरियोंकी तो कोई सीमा ही नहीं है। इसमें किसका दोष है? सरकारका तो नहीं ही है। हममें ईमानदारी के प्रति कोई लगाव नहीं है, और न बेईमानीके प्रति तिरस्कारका भाव ही है। मैं नहीं जानता कि रेलवेके नौकरोंमें 'नवजीवन' का कितना प्रचार है। तथापि जो पढ़ते हैं उनसे मेरी प्रार्थना है कि दूसरोंको यह लेख अवश्य पढ़वायें। रेल-कर्मचारी जनताके नौकर हैं——ऐसा उन्हें समझना चाहिए। उन्हें चोरी करनी ही नहीं चाहिए। यदि उन्हें पेट भरने योग्य वेतन नहीं मिलता तो उन्हें वेतन बढ़वानेके प्रयत्न करने चाहिए; लेकिन चोरी कदापि नहीं करनी चाहिए।
रेल-कर्मचारियोंके अपने संघ हैं। उनके नेताओंको मैं सुझाव देता हूँ कि उनका जितना कर्त्तव्य वेतनके सम्बन्धमें हलचल करनेका है उतना ही आन्तरिक सुधार करनेका भी है। यदि हम केवल अधिकारोंकी ही माँग करेंगे तथा अपने कर्त्तव्यका पालन नहीं करेंगे तो हम प्राप्त अधिकारोंको भी खो बैठेंगे। यहाँ प्रामाणिकताके सूक्ष्म सिद्धान्तका प्रश्न नहीं है। सामान्य व्यावहारिक प्रामाणिकतासे भी यदि हम वंचित रहें तो जनताका कारोबार ही न चले। मैं रेल-कर्मचारियोंके सम्मुख एक अत्यन्त सरल विचार प्रस्तुत करता हूँ; आप भी राष्ट्रके आन्दोलनमें दिलचस्पी लेते हैं, आप भी अंग्रेजी राज्यके अन्यायके विरुद्ध आवाज उठाते हैं; यदि आप ही जनताके मालकी चोरी करेंगे तो उसके अन्यायके विरुद्ध कौन आवाज उठायेगा? क्या अन्यायीको न्याय माँगनेका हक हो सकता है? जिस हदतक आप बेईमान बनेंगे उस हदतक आप अंग्रेजी सत्ताकी जड़ें अधिक मजबूत करेंगे। आप [अर्थात् अपने देश भाइयों] परसे लोगोंका विश्वास उठ जायेगा और आप अपने आचरणसे उन्हें यह कहनेको विवश करेंगे कि "अंग्रेजी शासन व्यवस्था कैसी भी क्यों न हो, अच्छी है।" पराधीन लोग जबतक अपने शासकोंसे नैतिक बलमें आगे नहीं बढ़ते तबतक वे गुलामीके बन्धन से मुक्त नहीं हो सकते। इसलिये यदि रेल-कर्मचारी अपना और जनताका भला चाहते हों तो उन्हें चोरी रूपी अनीतिको तुरन्त छोड़ देनेका निश्चय कर लेना चाहिए।
नवजीवन, १९-९-१९२०