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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


४. वकीलों द्वारा अपनी वकालत बन्द करके जनताको अपने झगड़े आपसमें निबटा लेनेकी सलाह देना।

५. सरकारी समारोह, भोज आदिका निमन्त्रण मिलनेपर विनयपूर्वक सिर्फ असहकारका कारण बताकर उसे अस्वीकृत कर देना।

यदि खिलाफतके प्रश्नका कोई समाधान न निकला तो सम्भवतया पहली अगस्तसे इन बातोंपर अमल किया जाना है।

पंजाबके सम्बन्धमें यदि न्याय न मिला तो लाला लाजपतरायने[१]विधान परिषदोंके बहिष्कारके रूप में असहकारकी घोषणा की है। इसलिए अब हम यह मान लेते हैं कि खिलाफतके मामले में पंजाब भी शामिल हो गया है। जिस तरह खिलाफतके सम्बन्धमें मुसलमानोंको अग्रणी होना चाहिए उसी तरह पंजाबके मामले में पंजाबियोंको आगे आना चाहिए। यदि पंजाबी असहकार न करें तो कहा जा सकता है कि हिन्दुस्तानके अन्य भागोंके लोगोंका असहकार करना उचित नहीं है।

हम यह आशा करेंगे कि लालाजी विधान परिषदोंका परित्याग करके ही चुप नहीं बैठ रहेंगे। जबतक हमें विजय प्राप्त नहीं होती तबतक हमें असहकारके दायरेको बढ़ाते जाना होगा तथा हमने जो चार कदम उठाये जानेकी बात की थी, उन्हें उठानेके लिए हमें तैयार रहना चाहिए; वैसे मेरा विश्वास यह है कि विधान परिषदोंके बहिष्कारमें समस्त राष्ट्रके भाग लेनेपर ही हमें विजय प्राप्त होगी।

विधान परिषदोंके [बहिष्कारके] सम्बन्धमें तीन मत व्यक्त किये गये हैं—

१. असहकार [आन्दोलन] किया ही न जाये।

२. विधान परिषदोंमें चुने जानेपर असहकार शुरू किया जाये।

३. विधान परिषदोंका त्याग ही न किया जाये।

पहला मत तो असहकारके एकदम विरुद्ध ही है। दूसरे मतकी जाँच करना बाकी है। मेरी तो यह मान्यता है कि विधान परिषद्में दाखिल होनेके लिए अथक परिश्रम करके फिर उसमें भाग न लेना बेकारकी मेहनत है। यह धन और समयकी बरबादी है। मेरी समझमें नहीं आता कि इसका क्या अर्थ हो सकता है। प्रश्न है कि यदि हम नहीं जाते तो अयोग्य व्यक्ति जायेंगे तब क्या होगा? यदि अयोग्य व्यक्ति विधान परिषदोंमें गये तो सरकार जाग्रत जनतापर शासन चलाने में सफल नहीं हो सकेगी तथा उसकी हँसी होगी। इसके अलावा चनावोंके झमेलेमें पड़नेसे बहिष्कारके शुद्ध स्वरूपको अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता। हमारा कर्तव्य तो यह है कि जनमतको इस ढंगसे प्रशिक्षित करना चाहिए जिससे किसी भी व्यक्तिका जनताकी ओरसे विधान परिषदोंमें जाना असम्भव हो जाये। जबतक राजा और प्रजाके बीच सद्भावनाका वातावरण न हो तबतक उसकी सभामें उपस्थित होनेका अर्थ उसकी सत्ताको और अधिक दृढ़ करना है। यदि शासन जनताके किसी भी भागको अपने साथ लेने में सफल नहीं हो पाता तो वह राज्य नहीं चला सकता। इससे यह सिद्ध

  1. १८६५-१९२८; समाज-सुधारक तथा पत्रकार; १९२० के भारतीय राष्ट्रीप कांग्रेसके कलकत्ता अधिवेशनके अध्यक्ष; लोक सेवक समाज (सर्वेन्ट्स ऑफ पीपुल्स सोसायटी) के संस्थापक।