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असहयोग

होता है कि जनतामें से जितने कम लोग राजाके साथ सहयोग करते हैं उसकी सत्ता उतनी ही कम होती है। इसलिए जो असहकारको स्वीकार करते हैं उनके लिए विधान परिषदोंका त्याग करना ही सच्चा और सीधा रास्ता है और मुझे उम्मीद है कि जो विधान परिषदोंमें दाखिल होनेकी भाग-दौड़में पड़ गये हैं, वे फिलहाल इस कार्यको छोड़कर, इससे अधिक उपयोगी कार्य, खिलाफत और पंजाबके सम्बन्धमें लोकमतको शिक्षित करनेमें लग जायेंगे और योग्य लोकसेवा करके विधान परिषदोंमें जानेका जब समय आयेगा तब वे उसके अधिक योग्य बन चुकेंगे।

अब रहे दो अन्य सुझाव, जिनके सम्बन्धमें कड़ी टीका होनेकी सम्भावना है। मेरा सुझाव है कि वकीलोंको फिलहाल अपनी वकालत बन्द कर देनी चाहिए तथा मुकदमा करनेवालों अथवा जो मुकदमेमें फँस गये हैं उन लोगोंको अदालतका त्याग करके पंच द्वारा अपने झगड़ोंका निपटारा कर लेना चाहिए। मेरी दृढ़ मान्यता है कि प्रत्येक सरकार अपने पशुबल अर्थात् सैनिक बलपर आवरण डाल दीवानी तथा फौजदारी अदालतोंके द्वारा जनतापर अपना अधिकार स्थापित करती है। क्योंकि पशुबलसे डराधमकाकर जनताको वशमें करनेकी अपेक्षा अदालतों आदिके मीठे प्रलोभनोंसे जनताको प्रलोभित कर उनकी मार्फत उसे पराधीन करनेसे जनता अपने आप वशमें हो जाती है— यह सस्ता और सहल साधन है तथा राज्यकर्त्ताको कीर्ति प्रदान करनेवाला है। यदि लोग अपने दीवानी झगड़ोंको घर बैठे ही निबटा लें तथा वकील अपने निजी स्वार्थको भूलकर प्रजाके हितार्थ अदालतोंका त्याग कर दें तो जनता एकदम उन्नति कर सकती है। इसलिए हालाँकि मैं जानता हूँ इस सुझावके लिए मेरी आलोचना होगी तथापि इसको [आपके] सम्मुख रखते हए मझे तनिक भी हिचकिचाहट नहीं हो रही है।

जो बात वकीलोंके सम्बन्धमें लागू होती है वही बात पाठशालाओंके सम्बन्धमें भी चरितार्थ होती है। खिलाफत तथा पंजाबके समान महत्त्वपूर्ण मामले न भी हों, तब भी जहाँतक बने वहाँतक में अवश्यमेव आजकी पाठशालाओंको विद्यार्थियोंसे रहित कर दूँ तथा जिन बच्चोंपर भारतका भविष्य निर्भर करता है उन बच्चोंको उनके योग्य शिक्षा दूँ। लेकिन इस समय पाठशालाएँ खाली करने के लिए कहनके पीछे मेरा उद्देश्य दूसरा है। मैं पाठशालाएँ खाली कराके सरकारसे कहना चाहता हूँ कि जबतक पंजाब और खिलाफतके सम्बन्धमें न्याय नहीं किया जाता तबतक तुम्हारे साथ सहयोग करनेकी बातको में गलत मानता हूँ। मैं जानता हूँ कि इस सुझावकी बहुत हँसी उड़ेगी लेकिन जैसे-जैसे समय बीतेगा वैसे-वैसे जनताको पता चलेगा कि यदि हम लोग सरकारकी पाठशालाओंमें अपने बच्चे न भेजें तो उसके लिए शासन-प्रबन्ध चलाना असम्भव हो जाये। हम संसार-भरमें जिस ओर दृष्टिपात करेंगे हमें पता चलेगा कि वहाँ बालकोंको इस तरहकी शिक्षा दी जाती है जिससे शासन-प्रबन्धको सहलसे-सहल तरीकेसे चलाने में मदद मिल सके। जहाँ सरकारका उद्देश्य केवल जनताका हित साधन होता है वहाँ शिक्षा-पद्धति भी वैसी ही होती है। जहाँ सरकार मिश्रित होती है—जैसे हिन्दुस्तानमें—वहाँ शिक्षा भी बुद्धिभेद उत्पन्न करनेवाली तथा हानिकारक