बकवासको एक सम्भव बात सिद्ध किया जा सकता है। किन्तु मेरी मान्यता गणितके हिसाबपर आधारित है। और मैं कहूँगा कि मेरी शर्तोंपर सही अमल किये बिना सच्चा स्वराज्य लगभग असम्भव है। स्वराज्यका मतलब है ऐसी स्थिति जिसमें हम अंग्रेजोंकी उपस्थिति बिना अपना पृथक अस्तित्व कायम रख सकें। यदि साझेदारी होनी हो तो स्वेच्छा-प्रेरित साझेदारी हो। जबतक हम अंग्रेजोंकी बराबरीका दर्जा नहीं पा लेते और अपने-आपको उनके बराबर नहीं मानते तबतक स्वराज्य हो ही नहीं सकता। आज हम महसूस करते हैं कि अपनी आन्तरिक और बाह्य सुरक्षाके लिए, हिन्दुओं और मुसलमानोंके बीच शस्त्र-बलपर आधारित शान्तिके लिए, अपनी शिक्षाके लिए, और रोज-ब-रोजकी जरूरतें पूरी करनेके लिए ही नहीं बल्कि अपने धार्मिक बखेड़े सुल- झानेके लिए भी अंग्रेजोंके आश्रित हैं। राजा लोग अपनी शक्तिके लिए और लखपती लोग अपने लाखों रुपयोंके लिए अंग्रेजोंपर निर्भर हैं। अंग्रेज हमारी असहायावस्था जानते हैं और सर टॉमस हॉलैंडका असहयोगियोंका मजाक उड़ाना वाजिब ही है। तो स्वराज्य पानेका मतलब है अपनी असहायावस्थासे मुक्ति पाना। समस्या निस्सन्देह बहुत बड़ी है, और हमारी स्थिति ठीक उस शेर-जैसी है जिसका पालन-पोषण बकरियोंके बीच हुआ हो और इसी कारण उसके लिए यह समझ पाना कठिन हो गया है कि वह वास्तवमें बकरी नहीं, शेर है। जैसा कि टॉल्स्टॉयने कहा था, आदमी बहुधा सम्मोहनके वशीभूत होकर काम करता है। इसके जादूके असरसे हम बराबर असहायावस्था महसूस करते हैं। स्वयं अंग्रेजोंसे ऐसी आशा नहीं की जा सकती कि वे हमें इससे छुटकारा पानेमें मदद देंगे। इसके विपरीत, वे बराबर हमारे कानोंमें यही आवाज पहुँचाते रहते हैं कि हम धीरे-धीरे प्रशिक्षणकी विधि द्वारा ही स्वशासनके योग्य बन सकते हैं। 'टाइम्स' का कहना है कि यदि हम कौंसिलोंका बहिष्कार करेंगे तो हम स्वराज्यके लिए प्रशिक्षणका एक अवसर खो देंगे। मुझे जरा भी सन्देह नहीं कि बहुत से लोग 'टाइम्स'ने जैसा कहा है, वैसा मानते हैं। उसने तो एक झूठका भी सहारा लिया है। वह बेधड़क कहता है कि लॉर्ड मिलनरके मिशनने मिस्त्रवासियोंकी बात तभी सुनी जब वे मिस्री कौंसिलोंका बहिष्कार बन्द कर देनेको तैयार हो गये। मेरे विचारसे स्वराज्यके सम्बन्धमें हमें केवल एक ही बातका प्रशिक्षण लेनेकी आवश्यकता है; अर्थात् इस बातका कि हम पूरे संसारके विरुद्ध अपनी रक्षा कर सकें और पूरी स्वतन्त्रताके साथ अपना स्वाभाविक जीवन जी सकें, चाहे उस जीवनमें कितने भी दोष हों। अच्छा शासन स्व-शासनका स्थान नहीं ले सकता। अफगानोंकी सरकार बुरी है, परन्तु उनकी अपनी है। मुझे उनके भाग्यसे ईर्ष्या है। जापानियोंने स्वशासनकी कला खूनकी नदियाँ बहाकर सीखी। और यदि आज हम पशुबलमें अंग्रेजों से बढ़े- चढ़े होते और उन्हें उसके सहारे यहाँसे निकाल बाहर कर देते तो हम उनसे श्रेष्ठ गिने जाते और कौंसिलोंकी मेजपर बहस करने या शासकीय पदोंकी जिम्मेदारी निभानेका कोई अनुभव न होनेके बावजूद हम स्वशासनके योग्य माने जाते। कारण यह है कि पाश्चात्य संसारने अबतक केवल पशुबलकी कसौटीको ही स्वीकारा है। जर्मन लोग यदि पराजित हुए तो इसलिए नहीं कि वे निश्चित रूपसे गलतीपर
पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/३२०
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