थे, वरन् इसलिए कि मित्र-राष्ट्र पशुबलमें जर्मन गुटसे श्रेष्ठ साबित हुए। तो अन्तमें निष्कर्ष यही निकलता है कि भारत या तो युद्ध-कला सीखे, और यह कला अंग्रेज उसे नहीं सिखायेंगे, या फिर वह असहयोग द्वारा अनुशासन और आत्म-बलिदानके अपने मार्गका अनुसरण करे। यह बात जितनी अपमानजनक है उतनी ही आश्चर्यजनक भी कि एक लाखसे भी कम अंग्रेज साढ़े इकत्तीस करोड़ भारतीयोंपर शासन करें। निस्सन्देह वे ऐसा उसी हदतक ताकतके बलसे करते हैं, परन्तु इससे ज्यादा हजारों तरहसे हमारा सहयोग प्राप्त करके और जैसे-जैसे समय बीतता जाता है हमें अधिकाधिक असहाय और अपने ऊपर निर्भर बनाकर करते हैं। हमें नई कौंसिलों, अधिक अदालतों बल्कि गवर्नरी तककी भेंटको भी भ्रमवश सच्ची स्वतन्त्रता या शक्ति नहीं समझ बैठना चाहिए। वे तो हमें केवल पुसंत्वहीन बनानेके गूढ़तर उपाय हैं। अंग्रेज लोग केवल पशुबलसे हमपर शासन नहीं कर सकते। और इसलिए वे भारतपर अपना प्रभुत्व बनाये रखनेके लिए अच्छे-बुरे सभी उपायोंका सहारा लेते हैं। वे अपनी साम्राज्यवादी बुभुक्षा मिटानेके लिए भारतसे सोना-चाँदी और जनशक्ति प्राप्त करते रहना चाहते हैं। यदि हम उन्हें धन-जन मुहैया करनेसे इनकार कर दें तो उसका मतलब होगा कि हमने अपना लक्ष्य अथवा स्वराज्य, समानता और पुसंत्व प्राप्त कर लिया।
वाइसरायकी कौंसिलकी बैठकमें अन्तिम दृश्योंमें जो-कुछ हुआ उसने हमारे अपमानका प्याला भर दिया। उस समय श्री शास्त्री पंजाबपर अपना प्रस्ताव नहीं पेश कर सके। जलियाँवालाकी बर्बरताके शिकार भारतीयोंको सिर्फ १,२५० रुपये मिले, जब कि भीड़की उत्तेजनाके शिकार अंग्रेजोंको लाखों मिले। अफसर लोग जनताके सेवक होते हैं। लेकिन जिन अधिकारियोंने अपनी स्वामिनी, अर्थात् जनताके विरुद्ध अपराध किया था, उन्हें डाँट-फटकार बताकर ही बख्श दिया गया। और कौंसिलके सदस्य इतनेसे ही सन्तुष्ट हो गये। यदि भारत सशक्त होता तो वह अपने घावपर इस तरह नमक छिड़का जाना बरदाश्त न करता।
मैं अंग्रेजोंको दोष नहीं देता। यदि हम उनकी तरह संख्यामें कम होते तो हम भी उन्हीं उपायोंका सहारा लेते जिनका सहारा आज वे ले रहे हैं। आतंक और छल, बलवानके नहीं कमजोरके अस्त्र हैं। अंग्रेज संख्यामें कम हैं, हम अपनी भारी संख्याके बावजूद कमजोर हैं। परिणाम यह है कि दोनों एक-दूसरेको गिरानेकी कोशिश कर रहे हैं। ऐसा आम तौरपर देखा गया है कि अंग्रेज भारतमें रहनेके बाद चरित्रसे कमजोर हो जाते हैं और भारतीय लोग अंग्रेजोंके सम्पर्कसे साहस और पौरुष खो देते हैं। यह कमजोर होते जानेका सिलसिला न हम दोनों राष्ट्रोंके लिए अच्छा है और न संसारके लिए ही।
परन्तु यदि हम भारतीय अपना खयाल स्वयं करें तो अंग्रेज और शेष संसार भी अपना खयाल स्वयं करेगा। इसलिए संसारकी प्रगतिमें हमारा सच्चा योगदान यही होगा कि हम अपना घर दुरुस्त करें।
फिलहाल शस्त्रोंका प्रशिक्षण लेनेका सवाल नहीं उठता। मैं एक कदम आगे बढ़कर सोचता हूँ कि भारतको संसारको एक उच्चतर सन्देश देना है। उसमें यह दिखा