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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

देनेकी क्षमता है कि वह शुद्ध आत्म-बलिदान अर्थात् आत्मशुद्धि द्वारा अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकता है। यह केवल असहयोग द्वारा किया जा सकता है और असहयोग तभी संभव है जब वे लोग, जिन्होंने सहयोग देना शुरू किया था, सहयोग देना बन्द करने लगें। अगर हम सिर्फ सरकारकी तिहरी माया——अर्थात सरकारके नियन्त्रणमें चलनेवाले स्कूलों, सरकारी अदालतों और विधान परिषदों——से छुटकारा पा लें और सच्चे अर्थोंमें अपनी शिक्षाको अपने नियन्त्रणमें ले लें, अपने झगड़ोंका निपटारा आप करने लगें और सरकारके कानूनोंके प्रति उदासीन हो जायें तो समझना चाहिए कि हम स्वशासनके लायक हो गये हैं। और इस सबके बाद ही हम सरकारी नौकरोंसे——चाहे वे असैनिक सेवामें हों या सैनिक सेवामें——त्यागपत्र देनेको और करदाताओंसे कर-बन्दी करनेको कह सकते हैं।

और अगर हम अपेक्षा करें कि माता-पिता अपने बच्चोंको सरकारी स्कूलों और कालेजोंसे निकालकर स्वयं अपनी शिक्षण-संस्थाएँ स्थापित करें, या अगर हम वकीलोंसे कहें कि वे जहाँ जरूरी हो वहाँ जीवन निर्वाहके लिए पैसे लेकर, वे अपना पूरा समय और ध्यान राष्ट्रसेवामें लगायें, या अगर कौंसिलोंके उम्मीदवारोंसे कहें कि वे कौंसिलोंमें प्रवेश न करें और जिस विधायक-यंत्रके माध्यमसे सरकार अपने नियन्त्रणका प्रयोग करती है, उस यंत्रके संचालनमें सक्रिय या निष्क्रिय, किसी तरहकी सहायता न करें तो क्या यह सब बहुत ज्यादा माना जायेगा? असहयोग आन्दोलन और कुछ नहीं, शासकोंके पशुबलको, जिन आकर्षक आवरणोंसे वह ढका हुआ है, हटाकर सुस्पष्ट कर देनेका और यह सिद्ध कर देनेका ही एक प्रयास है कि उसके जरिये अंग्रेज लोग भारतपर एक क्षण भी अपना प्रभुत्व कायम नहीं रख सकेंगे।

परन्तु मैं स्पष्टतः स्वीकार करता हूँ कि जबतक मेरी कही तीनों शर्तें पूरी नहीं होतीं, तबतक स्वराज्य नहीं होगा। ऐसा तो नहीं हो सकता कि एक ओर तो हम कालेजकी डिग्रियाँ लेते जायें, मुवक्किलोंसे ऐसे मामलोंके लिए जिन्हें पाँच मिनटमें निबटाया जा सकता है, हजारों रुपये महीना लेते रहें और कौंसिल-भवनमें खुशी-खुशी राष्ट्रके समयका दुरुपयोग करें, और दूसरी ओर राष्ट्रीय आत्म-सम्मान प्राप्त करनेकी भी आशा करें।

इस मायाके अन्तिम किन्तु महत्त्वपूर्ण हिस्सेपर विचार करना अभी शेष है। इस हिस्सेका सम्बन्ध स्वदेशीसे है। यदि हमने स्वदेशीका त्याग न किया होता तो आज हमारी इतनी अधोगति न होती। यदि हम आर्थिक गुलामीसे मुक्ति पाना चाहते हों तो हमें अपनी जरूरत-भर कपड़ेका उत्पादन खुद करना चाहिए। और फिलहाल यह काम केवल हाथसे कताई और बुनाई करके ही किया जा सकता है।

इस सबका मतलब है अनुशासन, आत्म-त्याग, आत्म-बलिदान, संगठनशक्ति, आत्मविश्वास और साहस। समाजमें आज जिन वर्गोंका प्रभाव और महत्त्व है, वे वर्ग अगर इन सारे गुणोंका परिचय एक सालमें ही दें और इस तरह जनमतका निर्माण करें तो निश्चय ही हमें एक ही सालमें स्वराज्य मिल जायेगा। और यदि मुझसे यह कहा जाये कि हम जो भारतका नेतृत्व करते हैं, उनमें भी ये गुण नहीं हैं, तो भारतको