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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

अधिक सावधानी बरती। निश्चय ही जब मैंने अपनेको कारके अन्दर पाया तो चैनकी साँस ली और सोचा कि मौलाना और मैं, दोनों जिस खतरनाक कसरतसे गुजरे हैं, उसके बाद भीड़का जय-जयकार करना उचित ही है——हम उसके असली पात्र हैं। पहलेसे ही तनिक सोच-विचारसे काम लिया जाता तो इस भीड़शाहीको——यह सचमुच भीड़शाही ही थी——एक बहुतही शानदार, व्यवस्थित और शिक्षाप्रद प्रदर्शनका रूप दिया जा सकता था, और उसमें किसीकी जानको कोई खतरा नहीं रह जाता। मद्रासका अनुभव अन्य अनेक अनुभवों-जैसा ही था। सेलम जाते हुए एरोडमें हमें एक असाधारण अनुभव हुआ। मैं काफी थका हुआ था। मेरी आवाज ज्यादा बोलनेके कारण फट-सी गई थी। अन्य अनेक स्टेशनोंकी तरह ही यहाँ भी भीड़ उमड़ी पड़ रही थी। वह पूरी तरह अव्यवस्थित थी, हालाँकि अन्य स्थानोंकी तरह ही संपूर्णतः प्रसन्न और श्रद्धायुक्त थी। मैंने उनसे कहा, आप लोग तरह-तरहकी बेसुरी आवाजें न करें, और चूँकि आप हमें देख चुके हैं इसलिए अब शान्तिपूर्वक चले जाइए। मैंने उनसे यह भी कहा कि यदि आप खिलाफत और पंजाब-सम्बन्धी संघर्षमें अपना हिस्सा अदा करना चाहते हैं तो आपसे अनुशासन सीखनेकी अपेक्षा की जाती है। उनमें से सबसे समझदार लोगोंको मैं अपनी बात समझा सका। मैंने सुझाव दिया कि वे धीरेसे उठें, स्टेशनके प्रवेश-द्वारकी ओर मुड़ें और बिना शोरगुल किये वापस चले जायें। उन्होंने मेरी बात मान ली और बाकी लोगोंने उनका अनुगमन किया। स्टेशन दो मिनटमें खाली हो गया। जिन दोस्तोंने मेरी बात मान ली, वे अगर बकझक और आपत्ति करने लगते, वहाँ रुके रहते और शोरगुल करनेका आग्रह करते तो पूरी भीड़ वैसा ही करती और जबतक ट्रेन वहाँ रुकी रहती, तबतक वहाँ चिल्ल-पों और अव्यवस्था बनी रहती।

मैं इस विवरणको जालारपेटका अपना अनुभव बताकर समाप्त करूँगा, जो उक्त अनुभवसे ठीक उलटा था। हम बंगलौरसे रातकी गाड़ीसे मद्रास जा रहे थे। दिनमें हम सेलममें सभाएँ करते रहे थे, फिर सेलमसे मोटर द्वारा १२५ मील दूर बंगलौर गये थे और वहाँपर मूसलाधार वर्षामें एक सभा की थी और इसके बाद हमें ट्रेन पकड़नी पड़ी थी। हमें रात में आरामकी जरूरत थी, परन्तु यह हमारे नसीबमें नहीं था। लगभग प्रत्येक बड़े स्टेशनपर हमारा स्वागत करनेके लिए भारी भीड़ जमा थी। आधी रातके करीब हम जालारपेट जंकशन पहुँचे। ट्रेनको वहाँ लगभग ४० मिनट रुकना था या शायद हमारे दुर्भाग्यसे वह वहाँ इतनी देरतक रुकी रही। मौलाना शौकत अलीने, भीड़से चले जानेका अनुरोध किया। परन्तु वे जितना ही आग्रह करते थे, उतना ही भीड़ चिल्लाती जाती थी——"मौलाना शौकत अलीकी जय।" स्पष्ट ही लोगोंका खयाल था कि मौलाना जो-कुछ कह रहे हैं, उनका अभिप्राय ठीक वह नहीं है। वे बीस मीलकी दूरी से आये थे, वहाँ घंटों पहलेसे इन्तजार कर रहे थे और अपने मनको पूरी तरह तुष्ट किये बिना वहाँसे टलनेवाले नहीं थे। आखिर मौलानाने भी हारकर सोनेका बहाना किया। इसपर मौलानाके स्नेही भक्तगण उनके दर्शन पानेके लिए डिब्बेके पायदानपर चढ़ गये। चूँकि हमारे डिब्बेकी रोशनी बुझा दी गई थी,