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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सकते हैं, जिसमें रिहायशी कमरे साथमें हों। यदि वे सारा माल १० प्रतिशत मुनाफेपर बेच दें तो वे ५० रुपये प्रति मास कमा सकते हैं। उनके कोई नौकर नहीं है। बीवी-बच्चे अपने फालतू समयमें दुकानकी सफाईमें मदद कर सकते हैं, और जब पति बाहर हो तो वे उसकी देखभाल भी कर सकते हैं। बीवी-बच्चे अपना फालतू समय कताईमें भी लगा सकते हैं।

शुरू-शुरूमें खद्दर शायद दुकानपर न बिके। वैसी हालतमें पतिको द्वार-द्वार- पर खद्दरकी फेरी लगानी होगी और उसे लोकप्रिय बनाना होगा। शीघ्र ही उसको ग्राहक मिल जायेंगे।

पाठक मेरे दस प्रतिशतके मुनाफेके सुझावपर आश्चर्य न करें। खद्दर भंडार सबसे गरीब वर्गके लोगोंके लिए नहीं बने हैं। खद्दरका प्रयोग कपड़ेपर होनेवाले खर्चका कमसे-कम आधा हिस्सा तो बचा ही देता है। इसका कारण सिर्फ यही नहीं है कि खद्दर अधिक टिकाऊ होता है (यद्यपि वह अधिक टिकाऊ तो होता ही है), वरन् यह कि उसका प्रयोग हमारी रुचियोंको बिलकुल बदल देता है। मैं ही जानता हूँ कि खद्दरके उपयोगके कारण मैं कितना पैसा बचा सका हूँ। जो लोग मात्र देशभक्तिसे प्रेरित होकर खद्दर खरीदते हैं, वे खद्दरपर १० प्रतिशत मुनाफा आसानीसे दे सकते हैं। अन्तिम बात यह कि खद्दरको लोकप्रिय बनानेके लिए बहुत सावधानी, लगन और श्रमकी जरूरत है। और भंडारका मालिक किसी थोक विक्रेतासे खद्दर नहीं खरीदता, वरन् सबसे अच्छा खद्दर पानके लिए उसे घूम-घूमकर स्थानीय बुनकरोंसे मिलना पड़ता है और उन्हें हाथके कते धागेसे वस्त्र बुननेको प्रोत्साहित करना पड़ता है। उसे खुद अपने जिलेमें वहाँकी औरतोंमें हाथसे कताईका प्रचार करना पड़ता है। उसे धुनियोंके सम्पर्कमें भी आना पड़ता है और उनसे रुई धुनवानी पड़ती है। इस सबके लिए बहुत समझदारी, संगठनशक्ति और योग्यताकी जरूरत होती है। जो आदमी इतने गुणोंका प्रदर्शन कर सकता है, वह १० प्रतिशत मुनाफा लेनेका हकदार है। और इस ढंगसे चलाया जानेवाला स्वदेशी भंडार स्वदेशी-सम्बन्धी गति-विधियोंका सच्चा केन्द्र बन जाता है। जो स्वदेशी भण्डार पहलेसे ही चल रहे हैं उनके प्रबन्धकोंका ध्यान मैं इन बातोंकी ओर आकृष्ट करता हूँ। वे चाहे अपने तरीकोंमें तुरन्त आमूल परिवर्तन न करें, परन्तु मुझे जरा भी सन्देह नहीं कि जितनी खादी वे बेचेंगे उस हदतक वे स्वदेशीको आगे बढ़ायेंगे।

[अंग्रेजीसे]
यंग इंडिया, २२-९-१९२०