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कांग्रेस-संगठनोंके लिए हिदायतोंके मसविदेपर रिपोर्ट

न देनेवाले वर्तमान सरकारी स्कूलोंको खाली करके राष्ट्रीय स्कूलोंकी आवश्यकताका निर्माण करें। हम स्कूलों और कालेजोंसे लड़के-लड़कियोंको धीरे-धीरे हटानेकी सलाह देते हैं। इस बीच उनकी शिक्षाके लिए निजी व्यवस्थापर निर्भर रहा जाये और जहाँ साधनोंके अभावमें वह भी सम्भव न हो वहाँ बच्चोंको देशप्रेमी व्यापारियों या कारीगरोंके यहाँ उन धन्धोंका प्रशिक्षण दिया जाये। [इसके लिए] जोरदार प्रचारकी व्यवस्था करनी चाहिए और माता-पिताओं, स्कूल-मास्टरों और १७ वर्षसे अधिक उम्रके बच्चोंके बीच प्रचार करना चाहिए। स्वयंसेवी शिक्षक तैयार करनेके लिए प्रचार करना चाहिए और सरकारके प्रत्यक्ष नियन्त्रणमें चलनेवाले स्कूलोंके अलावा जिन अन्य स्कूलोंके शिक्षक और उनमें पढ़नेवाले बच्चोंके माता-पिता सहमत हों, वे स्कूल तुरन्त सरकारको नोटिस दे दें कि निरीक्षणके रूपमें या अन्यथा हमपर तुम्हारा जो-कुछ भी नियन्त्रण है या हमें जो-कुछ सहायता मिलती है वह हमें कबूल नहीं है। इन स्कूलोंकी शिक्षा-प्रणालीमें स्थानीय परिस्थितिके अनुसार जैसा परिवर्तन करना जरूरी हो वैसा परिवर्तन करके उन्हें राष्ट्रीय शालाओंकी तरह चलाया जाये। अगर सुशिक्षित लोग हमारी शिक्षाको सचमुच राष्ट्रीय स्वरूप देनेके इस आन्दोलनमें दिलचस्पी लें तो निरीक्षण और मार्ग-दर्शनके लिए स्थानीय समितियाँ बनाई जा सकती हैं, जो अन्ततोगत्वा प्रान्तीय या जिला स्तरके विश्वविद्यालयोंका रूप ले सकती हैं। प्रस्तावमें स्कूलोंसे सम्बन्धित हिस्सेमें "धीरे-धीरे" क्रियाविशेषणके प्रयोगका मतलब केवल यह है कि तत्काल परिणामोंकी आशा नहीं है, क्योंकि अभी सरकारी स्कूलोंके प्रति लोगोंमें बहुत मोह है। इसका मतलब यह नहीं कि प्रचार इस तरह किया जाये कि स्कूलों और कालेजों से लड़के-लड़कियोंको धीरे-धीरे ही हटाया जा सके। जिन अभिभावकोंने अपने बच्चे स्कूलोंसे हटा लिये हों, जो लड़के स्वयं स्कूलोंसे हट गये हों, जिन स्कूल-मास्टरोंने इस्तीफा दे दिया हो, जो स्थानीय स्कूल स्थापित किये गये हों, उन सबकी तथा स्वयंसेवी शिक्षकोंकी सूचियाँ तैयार करके प्रान्तीय सदर मुकामको भेज दी जानी चाहिए और उन्हें प्रकाशित करना चाहिए।

अदालतोंका बहिष्कार

यह एक जानी-मानी बात है कि मुकदमेबाजी बहुत बढ़ गई है। यह भी एक सुविदित बात है कि वकीलोंकी संख्यामें वृद्धिके साथ-साथ मुकदमेबाजी भी बढ़ती जाती है। यह भी उतना ही सच है कि किसी भी सरकारके लिए उसकी अदालतें और दण्ड-व्यवस्था शक्तिका बहुत बड़ा स्रोत है। जब जनसाधारणमें सच्ची राष्ट्रीय चेतना जागृत होती है तो उसकी झलक अपराधों और दीवानी मुकदमोंकी संख्यामें भी अवश्य मिलेगी। जो राष्ट्र आत्म-निर्णयके लिए सन्नद्ध हो गया हो, उसके पास दीवानी या फौजदारीके आपसी झगड़ोंके लिए समय ही नहीं रहता, और मुकदमेबाजी न हो, ऐसी स्थिति पैदा करना प्रत्येक व्यक्तिका और विशेष रूपसे कानूनके माहिर लोगोंका कर्त्तव्य होना चाहिए। इसके अलावा अभीतक वकील लोग देशमें जन-आन्दो-लनका नियन्त्रण करते आये हैं (और बहुत अच्छी तरहसे नियन्त्रण करते आये हैं)। यदि वे अपना पूरा समय और ध्यान तत्काल स्वराज प्राप्त करनेमें नहीं लगाते और