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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

रणतया अलग-अलग भाषा बोलनेवाले विभिन्न समुदायोंकी राजनीतिक और सामाजिक उन्नतिमें और इस प्रकार पूरे भारतकी उन्नतिमें भी बाधक है। इसलिए हम महसूस करते हैं कि जहाँतक कांग्रेसका सवाल है, हमें भारतको पुनः भाषावार प्रान्तोंके रूपमें विभाजित करना चाहिए। सरकारसे प्रान्तोंका भाषावार पुनर्गठन करवानेके सम्बन्धमें जो आन्दोलन चलाया जा रहा है, इससे उसको बल मिलेगा।

हमने कांग्रेसमें मुसलमानोंके प्रतिनिधित्वके लिए कोई विशेष व्यवस्था नहीं की है। इन दोनों जातियोंके बीच वर्तमान सौहार्दपूर्ण सम्बन्धोंको ध्यानमें रखते हुए हम उनके अलग प्रतिनिधित्वकी कोई आवश्यकता नहीं समझते। लेकिन हम यह कहना चाहेंगे कि यदि मुसलमान विशेष व्यवस्था अथवा संरक्षणकी इच्छा व्यक्त करें तो उनकी इस इच्छाकी पूर्तिके लिए ऐसा कर देना चाहिए। जहाँतक उर्दू भाषाको स्वीकार करनेका सवाल है, हमने सामान्य शब्द हिन्दुस्तानीका प्रयोग किया है, जिसमें हिन्दी और उर्दू दोनों ही भाषाएँ आ जाती हैं। और हमने देवनागरी तथा फारसी दोनों ही लिपियोंको स्वीकार किया है।

हम नियमोंका अलग मसविदा नहीं दे रहे हैं। हमारा खयाल है कि संविधानमें, जहाँ किन्हीं विपरीत नियमोंका विधान न हो, वहाँ कांग्रेस तथा उसकी प्रशाखाओं-जैसी संस्थाओंके सम्बन्धमें सामान्य रूपसे स्वीकृत कार्यविधि ही लागू मानी जानी चाहिए।

हम हैं,
आपके

अंग्रेजी प्रति (जी॰ एन॰ ८२२८) की फोटो-नकलसे।

 

१६६. एक विचित्र परिपत्र

शिक्षा विभागकी ओरसे एक परिपत्र जारी किया गया है; उसका अनुवाद निम्नलिखित है:[१]

इस परिपत्रको जारी करनेके उद्देश्यको समझना कोई कठिन बात नहीं है। इस परिपत्रपर पहली सितम्बरकी तारीख पड़ी है। जब एक पक्ष असहकारकी बात करता है तो वहाँ पशुबल काम नहीं आता, बन्दूक भी व्यर्थ जाती है, यह बात बन्दूकका प्रयोग करनेवालों को माननी ही पड़ेगी। जब हम असहकार कर सकेंगे तब बन्दूकोंपर धूल जमने लगेगी, उनपर घास उग आयेगी और हमारे बच्चे उसपर खेलेंगे।

जब असहयोग चलता है तब विरोधीके सामने सहयोगकी बात करनेके अलावा और कोई चारा ही नहीं रह जाता। साम्राज्यका आधार परस्पर मैत्री——सहकार——पर ही है, इसमें कोई सन्देह नहीं। यह मैत्री जब मुझे मिथ्या जान पड़ी——बलवान और

  1. परिपत्रके मजमूनके लिए देखिए "साम्राज्यका अर्थ", २९-९-१९२० ।