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एक विचित्र परिपत्र

निर्बलकी दोस्ती लगी——तभी मैंने असहयोगका सुझाव रखा। मित्रता बराबरके लोगोंके बीच ही होती है और हम समस्त संसारके साथ मित्रता रखना चाहते हैं इसीसे उनकी बराबरीको हैसियत प्राप्त करना चाहते हैं, उनके प्रति निर्भय रहना चाहते हैं, उनके पशुवलपर नैतिक बलसे विजय प्राप्त करना चाहते हैं।

हमारा असहयोग ही हमारी मित्रताकी नींव है। उपर्युक्त परिपत्र सिर्फ दम्भ है, ढोंग है। यह प्रयत्न रेतकी दीवार उठानेका प्रयत्न करनेके समान निरर्थक है। यदि सरकारकी नीयत सचमुच हमें मित्र माननेकी हो तो उसे अन्याय दूर करना चाहिए, उसके व्यवहारमें अन्तर आना चाहिए, उसका हृदय द्रवित होना चाहिए। यदि उसका हृदय द्रवित हो उठे तो वह अनेक पापोंका प्रायश्चित्त करे। पंजाबको न्याय दे; मुसलमानोंके जरूमको भरे; तिलक महाराजको अपना शत्रु माननेके बदले उन्हें साम्राज्यका स्तम्भ माने; वाइसरायने उनका नामतक न लेनेका जो अपराध किया है, वे अपने अपराधके लिए क्षमा-याचना करें। तिलक महाराजका सबसे-बड़ा अपराध यही तो है कि उन्होंने अपनी दूरदृष्टिसे देखा कि जबतक अंग्रेज अधिकारी हमें तुच्छ मानते हैं तबतक उनका संसर्ग हमारे लिए हानिकारक है। इसीसे अंग्रेज अधिकारियोंको लगता है कि यदि वे उनका नाम लेंगे तो अपवित्र हो जायेंगे।

जबतक उनके मनमें हमारे प्रति तिरस्कारका भाव है तबतक मैत्री बढ़ानेके ये परिपत्र झूठे प्रलोभन हैं। लेकिन अधिकारियोंका हृदय बदलवानेकी उम्मीद रखनेका अधिकार हमें तभी प्राप्त होगा जब हम स्वयं अपने चारित्र्य बलसे उनके द्वेषभावको जीत लेंगे। हम स्वयं ही उन्हें अपनी अपेक्षा अधिक बलवान मानते हैं। हम उनके जैसा होना चाहते हैं। तथ्य तो यह है कि साम्राज्य प्राप्त करनेमें कोई उत्कर्षकी बात नहीं है। साम्राज्य प्राप्त करनेमें पशुबल, साम, दाम, दण्ड, भेद आदि शक्तियोंका प्रयोग होता है। इसमें नीतिमत्ताके मापदण्डको स्थान नहीं है। नीति ही तो उत्तमताका माप-दण्ड है और नीतिकी पृष्ठभूमिपर प्रतिष्ठित साम्राज्य ही सच्चा साम्राज्य है। हिन्दुस्तानने इस साम्राज्यको प्राप्त करनेके लिए असहयोग के मार्गको अपनाया है। उपर्युक्त परिपत्र तो हमें इतना ही सिखाता है, हमारा प्रतिपक्षी भी इस बातको स्वीकार करता है कि हमारा रास्ता सच्चा है।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २६-९-१९२०