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१६७. गुजरातका कर्त्तव्य

अब गुजरात क्या करेगा——यह प्रश्न सहज ही उत्पन्न होता है। गुजरातने तो कांग्रेसका अधिवेशन होनेसे पूर्व ही इस बातका निश्चय कर लिया था कि वह विधान परिषदों, स्कूलों और अदालतोंका बहिष्कार करेगा; उसके इस निश्चयको कांग्रेसने बहाल रखा है। इस तरह गुजरातका दोहरा कर्त्तव्य हो जाता है।

तथापि गुजरातने इस दिशामें कुछ विशेष कार्य किया हो, सो बात दिखाई नहीं देती।

ऐसा प्रतीत होता है कि विधान परिषदोंका अधिकांशतः बहिष्कार किया जायेगा लेकिन इतना ही काफी नहीं होगा।

हमने कितने स्कूल खाली कर दिये हैं? कितने वकीलोंने अपनी वकालत बन्द कर दी है? कितने लोगोंने विदेशी मालका सर्वथा त्याग कर दिया है? कितनोंने हाथसे कातता-बुनना आरम्भ किया अथवा करवाया है?

ये प्रश्न कोई साधारण प्रश्न नहीं हैं। इनका सही उत्तर ही हमारे खरेपनकी कसौटी होगा। विधान परिषदोंमें जाकर हमारे हाथ उठानेसे न स्वराज मिल सकता है, न पंजाबको न्याय और न उससे इस्लामका मान-भंग ही रुक सकता है।

वाइसराय महोदयने अपने कामसे एक बार फिर यह दिखा दिया है कि हमें न्यायकी आशा नहीं रखनी चाहिए। अधिकारियोंको डाँटा अवश्य गया है; किन्तु हिन्दुस्तानने अपराधी अधिकारियोंको डाँटने-भरकी ही माँग नहीं की थी। उसने उन्हें बरखास्त करने तथा उचित दण्ड देनेकी माँग की थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं किया गया।

फीजीमें निर्दोष और असहाय भारतीयोंपर अमृतसर-जैसा कहर बरपा किया गया। न्यूजीलैंडमें भारतीयोंके साथ जैसा असभ्य व्यवहार किया जाता है, गुजरातियोंने उसके बारेमें अवश्य पढ़ा होगा। आफ्रिकामें रहनेवाले भारतीयोंके अधिकारोंपर भी आक्रमण जारी है। दक्षिण आफ्रिकासे बड़ी कुशलतापूर्वक भारतीयोंको भगाया जा रहा है। जहाँ ऐसी राजनीति विद्यमान है वहाँ सहयोग कैसा?

इस राजनीतिको बदलने, अंग्रेजोंके समकक्ष होने, स्वाभिमानको बनाये रखने, देशको कंगाल होनेसे बचानेका और यदि हमारी अपनी कोई सभ्यता है तो उसे अभिव्यक्त करनेका कर्त्तव्य हमने अपने सिरपर उठा लिया है।

यह सब हम सभाओं अथवा प्रार्थनापत्रों द्वारा नहीं कर पायेंगे——ऐसा कांग्रेसने निश्चयपूर्वक कहा है। गुजरातियोंने तो उससे पहले ही यह कहा था।

तब हम यह कार्य किस तरह कर सकते हैं? हमारा उत्तर है कि वैसा हम "असहकार" से कर पायेंगे। अंग्रेजी राज्यसे असहयोगका अर्थ है, हममें परस्पर सहयोग; और यह स्वार्थ-त्याग, दृढ़ता, कार्यदक्षता, योजना तथा शिक्षाके बिना कदापि नहीं हो सकता।