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गुजरातका कर्त्तव्य


अपनी शिक्षाके लिए, अपने झगड़ोंको निपटानेके लिए, अपने कानूनके लिए, अपनी पोशाकके लिए यदि हमें अंग्रेज सरकारका मुँह जोहना पड़े तो हम किस तरहसे असहयोग कर सकते हैं?

अनीतिमें निमज्जित रहकर भी यदि कोई पिता अपने बच्चोंको शिक्षा देता हो, उनके झगड़ोंको निपटाता हो, उनके भविष्यके लिए नियमोंकी रचना करता हो तो क्या उस पिताके साथ वे बच्चे असहकार कर सकते हैं? और क्या तब असहकारका पहला कदम इन तीनों वस्तुओंके त्यागसे आरम्भ नहीं होगा? और जब बच्चे उसकी इन मेहरबानियोंको एकाएक छोड़ देंगे तब पिताके मनपर क्या बीतेगी? क्या पिता तुरन्त ही अपने आचरणको बदलकर बच्चोंको मनानेका प्रयत्न नहीं करेगा?

लेकिन यदि बच्चे यह मानते हों कि शिक्षासे प्राप्त होनेवाले लाभको खोना नहीं चाहिए, पिताजी हमारे झगड़ोंका निपटारा कर देते हैं——यह एक अच्छी बात है, और फिर भविष्यके लिए नियमोंका विधान भी पिता ही कर सकता है, इन सब सुविधाओंको छोड़कर असहकार किस लिए? यदि वे ऐसा सोचें तो वे पिताकी अनीतिको दूर नहीं कर सकते, इतना ही नहीं अपितु उसके भागीदार बन अन्ततः स्वयं भी वैसी ही अनीति करने लगते हैं।

ठीक यही बात सरकार और हमारे बारेमें चरितार्थ होती है। यदि स्थूल लाभोंके प्रलोभनमें पड़कर हम उससे समझौता कर लें तो स्वराज्य हमसे दूर खिसक जायेगा, क्यों कि हमें यही लगेगा कि स्कूल और अदालतें आदि तो सरकार ही चला सकती है। जिस तरह हमेशा गाड़ीमें बैठनेवाला व्यक्ति अपने चलने-फिरनेकी क्षमताको खो बैठता है उसी तरह पराधीनावस्थामें शिक्षा आदि प्राप्त करनेवाले व्यक्ति कभी स्वावलम्बी नहीं बन सकते।

जब हम स्वयं अपने बालकोंको शिक्षा दे सकेंगे, स्वयं अपने झगड़ोंको निपटा सकेंगे तब हममें नया बल आयेगा और हमें स्वतन्त्रताकी बात सूझेगी।

आगरामें हिन्दू-मुसलमानोंके बीच झगड़ा हुआ। एक अंग्रेज अधिकारीने कहा, "अब बुलाओ अपने मौलाना शौकत अली और गांधीको।" ऐसा कहकर उसने हमारा उपकार किया। मौलाना अथवा गांधीको वहाँ जानेकी जरूरत ही नहीं पड़ी; दिल्लीसे प्रख्यात हकीम अजमलखाँ और दूसरे लोग पहुँच गये तथा उन्होंने दोनों कौमोंके बीच समझौता करवा दिया। प्रजाको विश्वास हो गया कि सिपाहियों और अधिकारियोंके बिना भी काम चल सकता है। इस हदतक जनताने तरक्की की, वह स्वतन्त्र हुई और स्वराज्यके योग्य बनी।

इस तरह जनता जैसे-जैसे अपने कारोबारको स्वयं सँभालने लगेगी वैसे-वैसे वह स्वतन्त्र होती जायेगी।

असहयोग आन्दोलनका मन्शा ही उसके द्वारा जनताको उसकी अपनी शक्तिसे परिचित कराना है। जनताको इस बातकी प्रतीति होनी चाहिए कि उसकी सम्मतिके बिना, उसके सहयोगके बिना राज्यतन्त्र चल ही नहीं सकता। इस प्रतीतिमें ही स्वराज्यका मूल निहित है। जनता जबतक लालच, अज्ञान अथवा डरके कारण सरकारसे