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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

सहयोग कर रही है तभीतक वह परतन्त्र है। मान-अपमानके जंजालसे, सरकार द्वारा स्थापित स्कूलोंसे ही ज्ञान-प्राप्ति हो सकती है——ऐसी भ्रान्तिसे तथा सरकारके पशुबलके भयसे मुक्त होनेपर ही जनता स्वतन्त्र होगी।

यह स्पष्ट बात सब गुजरातियोंको समझ लेनी चाहिए और सबको अपना कर्त्तव्य जान लेना चाहिए।

[हमारे पास] मुख्यतया कार्यकर्त्ताओंका अभाव है। यदि हमें ईमानदार, सदाचारी, जागृत और असहयोगके प्रत्येक कदमपर अविचलित श्रद्धा रखनेवाले कार्यकर्त्ता मिल जायें तो जनताको तैयार होनेमें तनिक भी देर नहीं लगेगी। मुझे उम्मीद है कि प्रत्येक गाँवसे ऐसे कार्यकर्त्ता मिलेंगे।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २६-९-१९२०

 

१६८. उड़ीसाका अकाल

उड़ीसामें अकाल-जनित दुःख और क्षोभ कम होनेकी बजाय बढ़ते ही जाते हैं। 'नवजीवन' के पाठकोंने अकालपीड़ितोंकी बहुत सहायता की है, लेकिन उतना ही पर्याप्त नहीं है। भाई अमृतलाल ठक्करने ५०,००० रुपयेकी माँग की है, यदि वह माँग पूरी न हुई तो कितने ही व्यक्ति भूखों मर जायेंगे।

कोई भी व्यक्ति स्वयं जाकर वहाँकी हालत देख सकता है। थोड़े समय पहले एक सज्जन वहाँ गये थे; उन्होंने अपनी आँखोंके सामने एक व्यक्तिको भूखसे प्राण छोड़ते देखा। वह व्यक्ति वहाँ, जहाँ अकालपीड़ितोंको अनाज बाँटा जाता है, अनाज लेनेके लिये आया था; लेकिन लेनके पहले ही चल बसा।

इसी तरह अकालपीड़ित एक अन्य व्यक्ति अत्यन्त दुःखी होकर आत्महत्या करने जा रहा था; किन्तु आत्महत्या अपराध है, इसलिए पुलिसने उसे गिरफ्तार कर लिया। मजिस्ट्रेटने उसे नाममात्रकी सजा सुनाकर छोड़ दिया और उसे दान-पेटीसे बीस रुपये भी दिये गये।

पुरीमें इस समय स्वयंसेवकोंकी कमी है। जो स्वयंसेवक वहाँ हैं वे थक गये हैं, फलतः वैतनिक कर्मचारी रखने पड़े हैं; अर्थात् यह फाजिल खर्च होने लगा है। इस खर्चको पूरा करना हमारा धर्म है।

जबतक भारतमें करोड़ों व्यक्ति अकालका शिकार होकर भूखों मर रहे हैं तबतक हमें चाय-पार्टियों, रात्रिभोजों, आडम्बरपूर्ण वाद-विवाद करवाने तथा भोग-विलासके साधनोंपर पैसा खर्च करनेका कोई अधिकार नहीं है। स्वयं उत्तम पकवान आदि खाना भी अनुचित है।

यह बात तो मैंने एक लम्बे अरसेसे गरीबीके शिकार भारतीयोंके प्रति हमारा कर्त्तव्य सूचित करनेके लिए कही है। आप उसे स्वीकार करें अथवा न करें लेकिन