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उड़ीसाका अकाल

पुरीमें इस समय जो भूखमरी है उसके निवारणके बिना हमारा छुटकारा नहीं होगा। इसलिए मुझे उम्मीद है कि उस निमित्त प्रारम्भ किये गये दान-कोषमें सभी लोग यथाशक्ति दान देंगे।

इसके अतिरिक्त भाई अमृतलाल ठक्कर द्वारा सूचित एक दूसरे तथ्यकी ओर भी मैं पाठकोंका ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। वे लिखते हैं कि कृष्णचन्द्र नामक एक नवयुवककी कार्य करते हुए साँपके काटनेसे मृत्यु हो गई। इस भाईके परिवारके प्रति हमें अपनी समवेदना व्यक्त करनी चाहिए लेकिन [सच पूछो तो] मेरा मन तो उन्हें बधाई देनेको करता है।

मुझे दस्त लगें और उनसे मेरी मृत्यु हो जाये, इसकी अपेक्षा मैं भूखसे मरते किसी व्यक्तिकी भूखको मिटानेके प्रयत्नमें साँपके काटनेसे होनेवाली मृत्युको अधिक पसन्द करूँगा। दस्त मुझे मेरे पापोंके परिणामस्वरूप लगेंगे, साँपने भी कदाचित् मेरे पापोंके कारण ही काटा हो तथापि अच्छा काम करते हुए अनायास ऐसी मृत्यु आ जाये तो इससे सद्गति ही मिलेगी; फलतः मैं अपनेको भाग्यशाली मानूँगा।

मेरी कामना है कि कोई भी व्यक्ति भाई नायककी मृत्युसे भयभीत न होकर हर्षका अनुभव करे और ऐसा कोई भी कार्य करनेमें संकोचका अनुभव न करे।

हिन्दुस्तानमें, जहाँ मौतका भय सबसे कम होना चाहिए, लोग विशेष रूपसे इससे त्रस्त दिखाई देते हैं। हम आत्माको अजर-अमर मानते हैं, शरीरको क्षणभंगुर समझते हैं। आत्मा अपने कर्मानुसार नवीन देह धारण करता है। तो फिर मरणका भय वा शोक ही क्यों करें? बालक भी मरे तो हम यह समझकर कि वह अपना कर्ज चुकाकर चला गया, उसकी मृत्युसे दुःखी न हों। किन्तु ऐसा क्यों नहीं होता? बालककी मृत्यु अकाल मृत्यु मानी जाती है, क्या यह मिथ्या धारणा नहीं है? सबकी मृत्यु समयपर ही होती है, क्या ऐसा मानना हमारा धर्म नहीं है? मृत्युकी भावनाके पीछे जो मिथ्या भ्रान्तियाँ हैं उनसे हमें निःसन्देह मुक्ति प्राप्त करनी चाहिए।

इसका अर्थ यह कदापि नहीं है कि इसमें व्यक्तिके प्रयत्नको अवकाश नहीं। मृत्यु आज आये या कल, उसका भय किये बिना हम अपने कर्त्तव्यका पालन करें, अपना धर्म निभायें——इसीमें शुद्ध पुरुषार्थ है, क्योंकि इस तरह कर्त्तव्यका पालन करते हुए हम अधीरताके दोषसे अछूते रहकर अनेक पापोंसे बच जाते हैं और धर्मका पालन करनेमें आलस्य नहीं किया जा सकता, ऐसा समझकर मृत्युके भयको भुलाकर हम सतत कार्यशील रहते हैं।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, २६-९-१९२०