पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/३४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
३२१
भाषण : विद्यार्थियोंकी सभा, अहमदाबादमें

डालनेके लिए तरह-तरहके छल-प्रपंचसे काम लिया गया है। खिलाफतके सम्बन्धमें कुछ इस तरहसे वचन-भंग किया गया है कि एक बच्चा भी उसे समझ सकता है।

पंजाबमें जिन व्यक्तियोंपर अत्याचार किया गया वे कोई सामान्य व्यक्ति नहीं थे। वे सरकारी शिक्षा-प्राप्त शिक्षित-वर्गके ही व्यक्ति थे और उनपर जितने भी अत्याचार किये जा सकते थे, उतने किये गये।

सरकारने हिन्दुस्तानके स्वत्वका अपहरण किया है। यदि कोई लुटरा हमारे घरको लूट ले जाये और हमसे आकर कहे कि "मैं तुम्हारा धन ले गया हूँ, इस धनसे स्थापित स्कूलोंमें तुम लोग आकर पढ़ो", तो मुझे विश्वास है कि आप लुटेरोंको यहीं उत्तर देंगे कि "हमें तुम्हारी शिक्षा नहीं चाहिए।" कोई लुटेरा मेरा घर लूटकर ले जाये तो मैं यह बात सहन कर सकता हूँ; लेकिन अगर वह हमारा मान-भंग करे, हमारे पुरुषत्व और स्त्रीत्वपर आक्रमण करे तो इन्हें पुनः प्राप्त कैसे किया जा सकता है? मैं कैसे अपनी नाक कटते देख सकता हूँ? काठियावाड़के लुटेरे मुसाफिरोंकी नाक काट देते थे और एक डाक्टर ऐसा था कि कटी नाकको जोड़ देता था। लेकिन हिन्दुस्तानकी जो नाक कट गई है और उसकी जो आकृति विकृत हो गई है उसे फिर स्वरूप देनेवाला कोई डाक्टर है ही नहीं। इस लांछनको अगर कोई धो सकता है तो हम लोग ही धो सकते हैं। शुद्धसे-शुद्ध दूधमें विष पड़ने से जैसे हम उसका त्याग कर देंगे वैसे ही हमें यह मानना चाहिए कि अच्छीसे- अच्छी शिक्षा भी [मान-भंगका] विष घुलनेसे त्याज्य हो जाती है। मुझे निःसन्देह ऐसी आशंका होती है कि इन दो विषयोंको लेकर मेरे मनको जो ठेस पहुँची है, मुझे जितना दुःख हुआ है उतना दुःख पंडित मालवीयजी तथा श्री शास्त्रियरको कदाचित् हो ही नहीं सकता। यदि उन्हें भी ऐसा जान पड़े कि सरकारने जिस राजनीतिका परिचय दिया है, उससे दूधके समान वस्तुएँ भी विषके समान हो गई हैं तो वे भी वही कहेंगे जो मैंने कहा है। मैं तो कहूँगा कि सरकारी शिक्षामें जो विष घुल गया है उसे हमारे महापुरुष नहीं पहचान पाये हैं।

ऐसी विषम परिस्थितिमें यदि हम हाथपर-हाथ धरकर बैठे रहेंगे और कुछ नहीं करेंगे तो सदाके लिए हमारी नाक कट जायेगी और बहुत समयतक भारतीय जनता अपने स्वत्वको जगत्के सम्मुख प्रस्तुत करनेमें असमर्थ हो जायेगी। आप विद्यार्थी लोग अभीतक बच्चे ही हैं, ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसलिए आप माता-पिता आदि अपने गुरुजनोंको सम्मान सहित समझा-बुझाकर कल ही स्कूल जाना छोड़ दें। लेकिन मेरी आकांक्षा है कि सोलह वर्षसे ऊपरकी आयुवाले लड़के-लड़कियोंके लिए स्वतन्त्रताका उपभोग करनेकी जो अनिवार्य शर्तें हैं उन्हें आप अच्छी तरह से समझ लेंगे।

जो विद्यार्थी——मानसिक और हार्दिक रूपसे——दुःखी हो गये हैं और जो मानते हैं कि अब एक पलके लिए भी इस सरकारकी सत्ता सहन नहीं की जा सकती, जो मानते हैं कि जिस सत्तामें अन्यायका जहर व्याप्त हो गया है उस सत्ताके अधीन रहना शोचनीय है, सिर्फ ऐसे विद्यार्थियोंको ही स्कूल छोड़नेका अधिकार है। जो लुटेरा हमारा सर्वस्व हरकर ले जाये उसके हाथका दान भी हमें स्वीकार्य नहीं है, ठीक १८–२१