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पृष्ठ:सम्पूर्ण गाँधी वांग्मय Sampurna Gandhi, vol. 18.pdf/३५०

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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

वैसे ही सरकारकी ओरसे मिलनेवाली शिक्षा हमें नहीं लेनी चाहिए। इस निश्चयमें ही माता-पिता और नेताओंके प्रति हमारी विनयशीलता, हमारी आज्ञाकारिता समाहित है। जिस व्यक्ति हृदयसे यह आवाज आये कि "मुझे यह काम अवश्य करना चाहिए" उसे वैसा करनेका अधिकार है। यदि आपको ऐसी प्रतीति हो रही हो तो मैं चाहूँगा कि आप कलसे ही स्कूलों और कालेजोंमें जाना छोड़ दें।

अन्य स्कूल कहाँ हैं? यदि यह प्रश्न पूछा जाये तो मेरा उत्तर यह है कि जो ऐसा पूछते हैं उन्हें अभी बाट जोहनी चाहिए; उन्हें माँ-बापके साथ सलाह-मशविरा करनेकी जरूरत है, क्यों कि वे अभी शंकित हैं। जिस कोठरीमें सर्प हो उस कोठरीसे निकल जानेमें मनमें शंका क्यों होनी चाहिए? राष्ट्रीय कांग्रेसने जो प्रस्ताव पास किया है उसके अर्थपर यदि आप लोग विचार करना चाहेंगे तो मैं कहूँगा कि इस प्रस्तावमें नये स्कूलोंकी व्यवस्था करनेकी कोई शर्त नहीं है। हमें नये स्कूल मिलें अथवा न मिलें, लेकिन जो स्कूल हमारे लिए विषके समान हो गये हैं उनका त्याग करना अत्यन्त आवश्यक है।

इससे कोई यह न समझ ले कि मैं शिक्षा के विरुद्ध हूँ अथवा शिक्षाके सम्बन्धमें मेरे जो विचार हैं उनका प्रचार करना चाहता हूँ। उन विचारोंका प्रचार व प्रसार मैं राष्ट्रीय स्कूलकी मार्फत कर रहा हूँ और जिस समय इस शिक्षाके प्रसारमें मुझे वृद्धि करनी होगी उस समय मैं अपने साधन भी स्वयं खोज लूँगा। लेकिन इस समय तो एक सिपाहीकी हैसियतसे स्कूलोंका त्याग करवाना चाहता हूँ। जिस समय युद्ध शुरू हो जाता है उस समय विद्यार्थी स्कूल जाना छोड़ देते हैं, अदालतें खाली हो जाती हैं और जेलें भी रिक्तहो जाती हैं। वे लोग भी जिन्होंने जेलको अपना घर बना लिया है, अपने स्वभावको त्यागकर युद्धमें जूझ जाते हैं। उसी तरह हमारे लिए भी यह युद्ध-काल है। यदि हमारी जनता शस्त्र उठानेवाली होती तो हिन्दुस्तानमें कब की असंख्य तलवारें चमक उठी होतीं। लेकिन हिन्दुस्तानमें इस समय यह बात असम्भवसी जान पड़ती है। अभी तो सामान्य और लौकिक दृष्टिसे ही मैं इस प्रश्नको जनताके सामने रख रहा हूँ कि जिस सरकारने हमारे आत्म-सम्मानको इतनी ठेस पहुँचाई है उससे हम दान नहीं ले सकते, मदद नहीं ले सकते। इसलिए यदि आपको यह बात मान्य हो तो स्कूलोंकी व्यवस्था हो अथवा न हो, इसका प्रश्न ही नहीं उठता; अर्थात् आपको तो इस दृष्टिसे विचार करना है कि विद्यार्थियोंका तात्कालिक कर्त्तव्य इस समय स्कूलोंको छोड़ना है अथवा नहीं। स्कूल छोड़कर विद्यार्थी क्या करें? संक्रांति कालमें जो विद्यार्थी निठल्ले हो जायें वे क्या करें? ये सब प्रश्न पूछे जा सकते हैं; सिद्धान्त वही है जिसका मैंने निरूपण किया है। इससे जो उप-सिद्धान्त निकलते हैं उन्हें तो मैं आपके सामने रख नहीं रहा हूँ। मुख्य सिद्धान्तका अनुसरण करते हुए हम अपने दिलमें जो निर्णय करें हमें उसीके अनुरूप दृढ़तापूर्वक व्यवहार करना चाहिए। लेकिन आपसे यह कहना मेरा कर्त्तव्य है कि आपकी शंकाका समाधान होनेके उपरान्त दुर्बलतावश किसी भी विद्यार्थीको कालेज अथवा स्कूल जानेका अधिकार नहीं है। आज जनताके लिए यह समय दुर्बलता दिखलानेका नहीं है।