तबतक सरकार उसे चलने देनेकी स्वस्थ पद्धति अपना रही है। मैं समझ रहा था कि सरकारने किसी भी व्यक्तिको अपने विचार व्यक्त करनेके लिए, फिर चाहे वे कितने ही उम्र क्यों न हों लेकिन अगर उनसे जनतामें उत्तेजना नहीं फैलती तो, दण्ड देना बन्द कर दिया है।
लेकिन अब स्पष्ट ही यह नीति बदली जा रही है। जान पड़ता है श्री जफर अली खाँके भाषणसे सरकार तिलमिला गई। जिस जिलेमें काफी तादादमें लोग भरती हो सकते थे, उन्होंने उस जिलेमें लोगोंको सेनामें भरती न होनेकी सलाह दी किन्तु यदि ऐसी सलाह देना गलत है तो स्वयं कांग्रेसन ऐसी ही सलाह देनेकी भूल की है। प्रत्येक नागरिकको निःसन्देह यह अधिकार है कि वह लोगोंको ऐसा कोई भी धन्धा, जिससे उनके आत्म-सम्मान अथवा धार्मिक भावनाको चोट पहुँचती हो, अपनानेके विरुद्ध चेतावनी दे।
'सियासत' के श्री हबीब-शाहकी जमानत भी मेरे खयालसे कुछ इन्हीं कारणोंसे जब्त कर ली गई है। ज्यों-ज्यों असहयोग आन्दोलन अपना प्रभाव दिखलाने लगेगा हमें यही आशा रखनी चाहिए कि त्यों-त्यों इस प्रकारका दमनचक्र तेज होगा। यह स्पष्ट है कि हमारी सफलता वक्ताओंपर मुकदमे चलाकर तथा अखबारोंको दबाकर किये जानेवाले दमनके बावजूद पूर्णतः हमारे संघर्ष चलानेकी योग्यतापर निर्भर करती है। ऐसे दमनचक्रसे हमें और अधिक कार्य करनेका बल मिलना चाहिए तथा हमारी उचित माँगें एक नहीं हजारों व्यक्तियों द्वारा दुहराई जानी चाहिए। अगर सरकार पत्रकारोंकी प्रवृत्तियोंपर रोक लगाये तो इससे उन्हें घबराना नहीं चाहिए। अगर घर-घर जाकर प्रचार-कार्य किया जाये, हाथसे गश्ती पत्र लिख-लिखकर उनको कई गुना करनेकी विधि अर्थात् एक स्वयंसेवक अमुक संख्यामें ऐसे पत्र लिखकर विभिन्न स्वयंसेवकोंके बीच बाँटे और फिर उन स्वयंसेवकोंमें से प्रत्येक स्वयंसेवक उतनी ही संख्यामें पत्र लिखकर दूसरोंको दे और इसी तरह काम बढ़ता जाये तो यह काम समाचारपत्रोंकी अपेक्षा अधिक ठोस ढंगसे किया जा सकेगा। जब संघर्ष एक प्रभावकारी रूप धारण कर लेगा तब देशमें पूर्णतया शान्ति होनेके बावजूद हमें मुकदमों, नजरबन्दी तथा इस तरह की अन्य बातोंके लिए तैयार रहना होगा। और जब संघर्ष दमनकी इस अवस्थाको पार कर जायेगा तब असहयोग आन्दोलन लोगोंमें पहलेकी अपेक्षा अधिक प्रसिद्धि पा लेगा और विजय निश्चय ही हमारी होगी। क्योंकि उस हालतमें वह आन्दोलन एक ऐसी सरकारके विरुद्ध असहयोग करनेकी आवश्यकताका निश्चित प्रमाण बन जायेगा, जो लोगोंकी उचित आकांक्षाओं और तथ्योंके विधिसम्मत और यथार्थ निरूपणका भी दमन करती है; भले ही लोगोंकी ये आकांक्षाएँ और इस प्रकारके तथ्योंका निरूपण सरकारके लिए कितना ही अरुचिकर क्यों न हो?
किन्तु हमें अधीर नहीं होना चाहिए। मैं नीचे जो वाक्य दे रहा हूँ वे हमारी अधीरताके परिचायक हैं:
मैंने सुना है कि बगदादमें, भारतीय सेनामें एक पिता और पुत्र थे। वे तुर्कोंके विरुद्ध लड़ रहे थे। पुत्र एक मुठभेड़में मारा गया, उसका पिता उसके