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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


उनकी दूसरी शिकायत यह है कि मेरी भाषा बहुत "कड़वी" है। अगर सत्य कड़वा हो तो मैं अपना यह अपराध स्वीकार करता हूँ कि मैंने कड़वी भाषाका प्रयोग किया। लेकिन जनरल डायरके कृत्योंका वर्णन करनेके लिए किसी और भाषाका उपयोग मैं सत्यके साथ अन्याय किये बिना नहीं कर सकता था। स्वयं जनरल डायर या विरोधी गवाहोंकी बातोंसे सिद्ध हो चुका है कि:

(१) भीड़ निहत्थी थी।

(२) उसमें बच्चे भी शामिल थे।

(३) १३ तारीखको बैसाखीका मेला लगा था।

(४) हजारों लोग उस मेलेमें आये थे।

(५) वहाँ कोई विद्रोह नहीं हुआ था।

(६) मेलेकी तारीख और जिस दिन हत्याकांड हुआ, बीचके इन दो दिनोंमें अमृतसरमें शान्ति थी।

(७) सभाकी घोषणा उसी दिन की गई जिस दिन जनरल डायरकी घोषणा हुई थी।

(८) जनरल डायरकी घोषणामें सभाओंपर नहीं बल्कि प्रदर्शन और सड़कोंपर चारसे अधिक आदमियोंके एकत्र होनेपर प्रतिबन्ध लगाया गया था, और उक्त प्रतिबन्ध भी सड़कों तक ही सीमित था, निजी स्थानों या सार्वजनिक स्थानोंपर यह लागू नहीं होता था।

(९) जनरल डायरको न तो नगरके बाहर कोई खतरा था और न नगरके भीतर।

(१०) उन्होंने खुद स्वीकार किया कि भीड़में शामिल बहुत-से लोगोंको उनकी घोषणा की कोई जानकारी नहीं थी।

(११) उन्होंने भीड़को चेतावनी दिये बिना गोलियाँ चलाईं और जब भीड़ तितर-बितर होने लगी तब भी वे गोलियाँ चलाते रहे। उन्होंने भागते हुए लोगोंपर पीछेसे गोलियाँ चलाई।

(१२) लोगोंको एक अहातेमें लगभग घेरकर बन्द कर दिया गया था।

इन तथ्योंको ध्यानमें रखते हुए मैं जनरल डायरके इस कामको "नरसंहार" ही कहता हूँ। यह काम "निर्णयकी भूल" नहीं था, यह तो "काल्पनिक खतरोंसे सामना पड़ जानेपर निर्णय-बुद्धिको लकवा मार जाने" का उदाहरण है।

मुझे दुःखके साथ कहना पड़ता है कि श्री पैनिंगटनकी टिप्पणियाँ भी, जिन्हें पाठक अन्यत्र प्रकाशित देखेंगे, वैसे ही अज्ञानसे भरी हुई हैं जैसे अज्ञानका परिचय उनके पत्रसे मिलता है।

कैगिके समयमें जो-कुछ भी कागजपर स्वीकार किया गया, उसे कभी पूरी तरह कार्यान्वित नहीं किया गया। एक प्रतिक्रियावादी वाइसरायने कहा था "जो वादे किये गये, लोग उनके पूरे किये जानेकी आशा ही लगाये रह गये।" कैनिंगके समयसे सैनिक-व्यय अब बहुत अधिक बढ़ गया है।

जनरल डायरके पक्षमें प्रदर्शन होनेकी जो बात कही गई है वह तो लगभग एक कपोल-कल्पना ही है।