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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

जितना नुकसान करता है उतना नुकसान तो त्यागपत्र न देनेवाला अध्यापक भी नहीं करता। भले ही आपदाएँ आयें, संकटोंका सामना करना पड़े, उनको झेलते हुए अपना कार्य करते रहना वीरताका सूचक है। युद्धके समय वणिक-वृत्तिकी अपेक्षा वीरताका भाव अधिक होता है। शान्तिकालमें वणिक-वृत्तिकी आवश्यकता होती है और अशान्तिके समय वीरताकी। गुजरात वणिक-वृत्तिके लिए प्रख्यात है। वणिकोंमें वीरताका अभाव बिलकुल स्वाभाविक है, यह धारणा ठीक नहीं। जैसे समष्टि किसी एक ही वृत्तिको आधार बनाकर टिकी नहीं रह सकती वैसे ही व्यक्तिका पोषण भी एक ही वृत्तिसे नहीं होता। अतएव प्रत्येक व्यक्तिमें वीरताका गुण होता अवश्य है, मात्र उसका उपयोग करनेका कोई अवसर न मिलनेके कारण हमें ऐसा आभास होने लगता है कि हममें उक्त गुणका अभाव है। आज गुजरात के लिए, समस्त भारतवर्षके लिए वीरताका परिचय देनेका समय आ गया है।

'जहाँ पशुबलका प्रयोग नहीं करना है, वहाँ वीरता कैसी?' मुझे उम्मीद है। कि कोई भी व्यक्ति ऐसी कुशंकाका शिकार नहीं बनेगा। वस्तुतः देखा जाये तो पशुबलका प्रयोग करनेमें वीरता नहीं है। हाथी चींटियोंको रौंदता चला जाये तो यह कोई वीरता नहीं हुई; लेकिन सिंहके साथ जूझकर हाथी वीरताका परिचय देता है, क्योंकि इसमें वह अपनी जानको खतरे में डालता है। गधेका कान उमेठनेसे कुम्हार वीर नहीं बनता; लेकिन लुटेरोंका सामना करते हुए वह नरकेसरी अपनी वीरता दिखा सकता है। क्योंकि उस समय वह अपने प्राणोंको स्पष्टतया संकटकी आगमें झोंकता है। जो पशुबलका प्रयोग न करके भी अविजित रहकर संघर्ष करता है वह परिपूर्ण वीरता प्रदर्शित करता है। यहाँ वीरताका क्या अर्थ है? हिन्दुस्तानके लिए इस निःशस्त्र युद्धमें पूर्ण वीरता दिखानेका अवसर उपस्थित हुआ है। मेरी शिक्षाका कल क्या परिणाम होगा, इसका विचार किये बिना जो स्कूलका परित्याग करता है वह विद्यार्थी वीरता दिखाता है, जो दूसरे स्कूलका प्रबन्ध होनेपर ही पहले स्कूलका परित्याग करता है वह विद्यार्थी वणिक-वृत्तिका परिचय देता है। रोजी मिले या न मिले, इसकी परवाह किये बिना अदालतमें न जानेवाला वकील वीरताका प्रदर्शन करता है; रोजीका बन्दोबस्त करनेके बाद ही अदालतका त्याग करनेवाले वकीलने दुनियादारीसे काम भले ही लिया हो, लेकिन उस कामको वीरताका नाम तो नहीं ही दिया जा सकता। परिणामका भय किये बिना विश्वासपूर्वक जूझना ही वीरता है। जहाँ भीरुता हो वहाँ वीरता कदापि नहीं हो सकती। हमारी जनता भीरु है। भीरु बने रहकर स्वतन्त्रता-प्राप्ति परस्पर विरोधी बात है। [हमें] पग-पगपर साहसकी आवश्यकता पड़ेगी। रणमें संकटोंका सामना करना होता है और अनिच्छापूर्वक वैसा करना पड़ता है। यहाँ हम इच्छापूर्वक संकटोंका आह्वान करते हैं और इच्छापूर्वक थोड़ेसे संकटको झेलनेसे ही हमें बड़े-बड़े परिणामोंकी उपलब्धि हो सकती है।

आज हम असहयोगकी दिशामें जो कदम उठाने जा रहे हैं उसमें थोड़ा-बहुत जोखिम तो है ही। तथापि अगर जनता उसमें पूरी तरह भाग ले तो मुझे विश्वास है