को बनाये रखना, स्वतन्त्रता छिन गई हो तो उसे प्राप्त करना, उनका धर्म है तो राष्ट्रकी सुरक्षा असम्भव है।
अपनी आस्थामें उत्तरोत्तर वृद्धि करने के लिए देव-दर्शन करना मैं महत्त्वपूर्ण चीज समझता हूँ, लेकिन यदि स्त्रियाँ यह मानें कि देव-दर्शन में ही सम्पूर्ण धर्मका समावेश हो जाता है तो यह धारणा अन्धविश्वासका स्वरूप धारण कर लेती है और इसके परिणामस्वरूप राष्ट्रका नुकसान होता है। देव-दर्शन आत्मज्ञानका एक साधन है, इस बातको जाननेवाली स्त्री यह समझ जायेगी कि राष्ट्रकी स्वतन्त्रताकी ध्वनि मन्दिरोंमें भी गुंजरित होनी चाहिए; क्योंकि स्वतन्त्रताके बिना धर्मकी रक्षा करना असम्भव है। अमृतसरमें जब जनरल डायरने कहर बरपा किया था उस समय लोग धर्मकी कितनी रक्षा कर सके थे? तब भी स्त्रियाँ मन्दिरोंमें जाती थीं, थोड़े-बहुत पुरुष भी जाते थे। उनके वहाँ जानेका क्या फल निकला?
यदि स्त्रियाँ यह जानती होती कि इस व्यक्ति, अर्थात् जनरल डायर, के अत्याचारसे मुक्ति प्राप्त करना जनताका सर्वोपरि कर्त्तव्य है तो वे अपने पतियों तथा पुत्रोंको शूरताका पाठ पढ़ातीं तथा उन्हें भीरुताका परित्याग करके स्वाभिमान की रक्षा करनेके लिए सन्नद्ध करतीं। लेकिन आज तो इस देशकी स्त्रियाँ राष्ट्र-कल्याणकी सच्ची बातोंसे अनभिज्ञ रहती हैं, इससे हमें उनसे बहुत कम मदद मिलती है।
पहले यह बात नहीं थी। सीताजीने रामक साथ वनगमन किया। उनसे रामचन्द्रके काम बिलकुल छिपे हुए नहीं थे। द्रौपदी पांडवोंकी सहचरी बनी और उनके साथ जंगलोंमें भटकी तथा जब उसकी लाज लुटनेका प्रसंग आया तब उसने जगत्के सम्मुख यह बात सिद्ध कर दी कि वह आत्मबलसे अपनी रक्षा करनेमें समर्थ है। दमयन्ती नलकी समस्त प्रवृत्तियोंमें उसके साथ कन्धेसे-कन्धा मिलाकर चलती रही इतना ही नहीं बल्कि नलकी मूर्च्छितावस्थामें उसने उसकी रक्षा की।
आज सामान्य रूपसे हम कह सकते हैं कि स्त्री-पुरुष विरोधी दशामें जाते दिखाई देते हैं। स्त्रीके किसी भी कार्यमें पुरुष हस्तक्षेप नहीं करता, फलस्वरूप उनके अन्धविश्वासमें उत्तरोत्तर वृद्धि होती जाती है, यद्यपि उनकी आस्था अभी डिगी नहीं है। पुरुष भी जो उसे अच्छा लगता है सो करता है, उसमें स्त्री दखल नहीं देती।
इसलिए प्रथम सुधार तो यह होना चाहिए कि स्त्रियोंको स्वतन्त्रताके महामन्त्रको जानकर, उसे धर्म समझकर उसका पालन करना चाहिए। जो स्त्री इस बातको मान गई है उसे चाहिए कि वह अन्य बहनोंको इसका ज्ञान दे। स्त्री-समाजमें महान् कार्य तो स्त्री ही करेगी। पुरुषकी शक्तिकी सीमा है। वह स्त्रियोंके हृदयकी अन्तरतम गहराइयोंमें कदापि नहीं पैठ सकता।
स्त्री अपने बाल-बच्चोंके शरीरका पोषण करती है। उसे उसी प्रमाणमें उनके हृदयोंमें स्वतन्त्रता, निर्भयता और दृढ़ता आदि गुण प्रतिष्ठित करने चाहिए। आजीविकाका क्या होगा——इसकी चिन्ता न करे तथा यह समझे कि अगर वह स्वयं और उसके बच्चे काम करनेके लिए तत्पर रहें तो आजीविका सहल बात हो जाएगी।
स्त्रियोंका तात्कालिक धर्म तो यह है कि यदि उनके बच्चे सरकारी स्कूलोंमें पढ़ने जाते हैं तो उन्हें उन स्कूलोंसे हटा लें।