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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय


लेकिन सबसे महान् कार्य——हमेशाके लिए करनेका कार्य——तो स्वदेशी है। स्वदेशीके बिना राष्ट्रीय-जीवनको जागृत नहीं रखा जा सकता। आज हमारा देश अन्न और वस्त्रके अभाव से पीड़ित है, उसका मुख्य कारण यह है कि राष्ट्रके पास धनका अभाव है। देश अपनी जरूरतका कपड़ा बनानेमें समर्थ होनेपर भी, बनानेके बदले विदेशोंसे मँगवाकर पहनता है, इससे प्रतिवर्ष राष्ट्रका शोषण होता है। यह दोष स्त्रियोंके साहसके बिना दूर होनेवाला नहीं है। इस देशकी स्त्रियाँ अनादिकालसे कातने- का कार्य करती आ रही है। जबसे उन्होंने सूत कातना बन्द कर दिया है तब से हिन्दुस्तानकी आर्थिक और आत्मिक स्थिति गिरती चली गई है। हिन्दुस्तानकी स्वतन्त्रता सूतके धागोंपर निर्भर करती है, यदि ऐसा कहें तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। यदि हिन्दुस्तान अपनी आवश्यकताका सारा सूत अपनी झोंपड़ियोंमें कतवा सके और घरोंमें ही उसका कपड़ा बुनवा सके तो उसे इतनी शक्ति प्राप्त हो जायेगी कि इसी शक्तिसे उसे पूर्ण स्वतन्त्रताकी उपलब्धि हो सकेगी और स्वतन्त्र हिन्दुस्तान खिलाफत और पंजाबके मामलोंपर भी न्याय प्राप्त कर सकेगा।

[गुजरातीसे]
नवजीवन, ३-१०-१९२०
 

१८१. न्यायालयोंका व्यामोह

अगर हमपर वकीलों और अदालतोंका जादू न चढ़ा होता और अगर हमें फुसलाकर न्यायालयोंके दलदलमें फँसा देनेवाले और हमारी अधमसे-अधम भावनाओंको उभारनेवाले दलाल न होते तो हमारा जीवन आजकी अपेक्षा बहुत सुखी होता। अदालतोंके इर्द-गिर्द मँडराते रहनेवाले——बल्कि इस कोटिके अच्छेसे-अच्छे लोग भी——इस बातकी साक्षी भरेंगे कि वहाँका वातावरण बहुत दूषित होता है। दोनों तरफसे झूठे गवाह पेश किये जाते हैं, जो पैसे या मित्रताके लिए अपनी आत्मातक बेच देनेको तैयार रहते हैं। लेकिन यह इन अदालतोंकी कोई सबसे बड़ी बुराई नहीं है। उनकी सबसे बड़ी बुराई तो यह है कि ये सरकारकी सत्ताको बल देती हैं। इन्हें न्याय देनेवाली संस्था माना जाता है और इसलिए न्यायालयोंको राष्ट्रकी स्वतन्त्रताका अभिरक्षक कहा जाता है। लेकिन जब ये किसी अन्यायी सरकारकी सत्ताका समर्थन करती हैं तो स्वतन्त्रताकी अभिरक्षक नहीं, बल्कि किसी राष्ट्रकी आत्माको दलित करनेवाली संस्थाएँ बन जाती हैं। ऐसी ही थीं पंजाबकी सैनिक शासन अदालतें और समरी अदालतें। हमने उन्हें पूरी तरह उनके नग्न रूपमें देखा और उनका यही रूप सामान्य समयमें भी होता है, यदि सवाल एक उच्चतर जाति और उसके गुलामोंकी तरह जिन्दगी बितानेवाले लोगोंके बीच न्याय करनेका हो। सारी दुनियामें उनका यही रूप देखनेको मिलता है। जरा उस अंग्रेज अधिकारीपर चलाये गये मुकदमे और उस नाममात्रकी सजापर गौर कीजिए जो उसे नैरोबीके निरीह नीग्रों लोगोंपर जान-बूझकर अत्याचार करनेके लिए दी गई थी। भारतमें अंग्रेजोंने जो नृशंस हत्याएँ