की हैं उसके लिए क्या एक भी अंग्रेजको कानूनमें विहित कड़ीसे-कड़ी सजा या उससे मिलती-जुलती कोई भी सजा दी गई है? कोई ऐसा न सोचे कि अंग्रेजोंके बदले भारतीय न्यायाधीश या सरकारी वकील होने लगेंगे तो स्थिति बदल जायेगी। अंग्रेज लोग स्वभावसे भ्रष्टाचारी नहीं हैं और न ऐसा ही है कि हर भारतीय फरिश्ता है। अपने-अपने परिवेशका प्रभाव दोनोंपर पड़ता है। सैनिक शासनके दौरान भारतीय न्यायाधीश भी थे और सरकारी वकील भी, लेकिन इन लोगोंने भी वही सब किया जिसके अपराधी अंग्रेज हैं। अगर मनियाँवालाकी स्त्रियोंका अपमान किसी बॉसवर्थ स्मिथने किया तो अमृतसरमें निरीह स्त्रियोंपर अत्याचार करनेवाले लोग भारतीय ही थे। मैं जिस चीजकी आलोचना कर रहा हूँ वह तो एक प्रणाली है। वैसे अंग्रेजोंके साथ मेरा कोई झगड़ा नहीं है। मैं आज भी व्यक्तिके रूपमें अंग्रेजोंका सम्मान उसी तरह करता हूँ जैसे पहले करता था, जब कि मुझे इस बातका पता नहीं था कि वग्रेमान प्रणालीमें कोई सुधार हो ही नहीं सकता। अगर श्री एन्ड्र्यूज और मेरे अन्य परिचित अंग्रेजोंके साथ मेरे सम्बन्धमें आज कोई अन्तर पड़ा है तो केवल यह कि वे लोग मेरे और भी निकट आ गये हैं। लेकिन अगर वे, जो मेरे लिए सगे भाईसे भी बढ़कर हैं, भारतके वाइसराय बन जायें तो मैं उन्हें अपनी श्रद्धा नहीं दे पाऊँगा। अगर वे यह पद स्वीकार कर लें तो मुझे यह भरोसा नहीं रह जायेगा कि वे ईमानदार रह सकते हैं। उस हालतमें उन्हें एक ऐसी प्रणालीका संचालन करना पड़ेगा जो सहज ही भ्रष्टाचारी है और जिसका आधार ही यह मान्यता है कि हम भारतीय लोग निम्नतर जातिके हैं। अपने उद्देश्योंको लोगोंके लिए सम्माननीय बनानेके लिए शैतान अधिकांशतः अपेक्षाकृत नीति- समर्थित साधनों और नैतिकताकी भाषाका ही प्रयोग करता है।
मैंने यह दिखानेके लिए थोड़ा विषयान्तर कर दिया है कि इस सरकारमें अगर सभी लोग भारतीय हों लेकिन इसका संचालन उसी तरह किया जाये जिस तरह आज किया जाता है तो इस परिवर्तनके बावजूद वह आजकी ही तरह असह्य होगी। यही कारण है कि यह जानकर मुझे कोई सन्तोष नहीं हुआ कि लॉर्ड सिन्हा एक बहुत ऊँचे पदपर[१]नियुक्त किये गये हैं। हमें सिद्धान्ततः और व्यवहारतः भी, पूरी समानता मिलनी चाहिए और हममें यह क्षमता होनी चाहिए कि अगर हम ब्रिटेनसे अपने सम्बन्ध तोड़ लेना चाहें तो ऐसा कर सकें।
लेकिन अब असली सवाल अर्थात् वकीलों और न्यायालयोंकी बात लें। हम तब-तक यह वांछित दर्जा प्राप्त नहीं कर सकते जबतक हम इन तथाकथित न्याय-मंदिरोंके प्रति अन्ध-श्रद्धा रखते हैं और उन्हें विस्मयविमुग्ध दृष्टिसे देखते हैं। जो लोग इन न्यायालयोंके सहारे अपने लालच या प्रतिशोधको भावनाकी तुष्टि करते हैं या अपने न्याय-सम्मत दावे स्वीकार करा लेते हैं उन्हें इन न्यायालयोंके अन्तिम लक्ष्यकी ओरसे आँखें बन्द नहीं कर लेनी चाहिए, और न्यायालयोंका अन्तिम लक्ष्य, ये न्यायालय जिस सरकारका प्रतिनिधित्व करते हैं, उस सरकारकी सत्ताको स्थायित्व प्रदान करना है। अपने न्यायालयोंके बिना यह सरकार एक दिनमें समाप्त हो जायेगी। मैं यह स्वीकार
- ↑ बिहार और उड़ीसाके गवर्नर-पदपर।