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सम्पूर्ण गांधी वाङ्मय

करता हूँ कि मेरी योजनाके अन्तर्गत जब प्रत्येक भारतीय वकील अपनी वकालत बन्द कर देगा और न्यायालयोंमें कोई भी दीवानी मुकदमा पेश नहीं किया जायेगा, तब भी न्यायालयोंके जरिये लोगोंको अपने अधीन रखनेकी शक्ति सरकारमें रहेगी ही। लेकिन तब ये न्यायालय हमें धोखा तो नहीं दे सकेंगे। उनकी नैतिक प्रतिष्ठा समाप्त हो जायेगी और उनके साथ सम्माननीयताका जो एक भाव जुड़ा हुआ है, वह भी नहीं रह जायेगा। यह बात कुछ विचित्र तो लगती है फिर भी है सत्य कि जबतक हम धीरे-धीरे अंग्रेजोंके हाथसे भारतीयोंके हाथमें शक्ति देनेकी अच्छाईमें विश्वास करते रहेंगे तबतक न्यायालयोंमें भारतीयोंकी ऊँचे पदोंपर नियुक्तिको वरदान माना जाता रहेगा। लेकिन अब चूँकि हम ऐसा मानते हैं कि इस पद्धतिको क्रमिक रूपसे सुधारना असम्भव है, इसलिए ऐसी हर नियुक्तिको, उसके पीछे जो धोखेबाजी छिपी हुई है, उसे दृष्टिमें रखते हुए बुरा ही मानना चाहिए। इसलिए अपनी वकालत बन्द करनेवाला हर वकील उस हदतक न्यायालयोंकी प्रतिष्ठाकी जड़को कमजोर करता है और उस हदतक यह कार्रवाई स्वयं उस व्यक्तिके लिए भी लाभदायक है और राष्ट्रके लिए भी।

और न्यायालयोंके कारण लोगोंको जो आर्थिक क्षति उठानी पड़ती है, उसपर तो कोई विचार किया ही नहीं गया है। लेकिन यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। वर्तमान प्रणालीके अधीन जितनी भी संस्थाएँ चल रही हैं, सबपर बहुत ज्यादा खर्च किया जा रहा है और कदाचित् सबसे ज्यादा खर्च न्यायालयोंपर किया जाता है। इनपर इंग्लैंडमें कितना खर्च किया जाता है, इसकी मुझे थोड़ी-सी जानकारी है; भारतके सम्बन्धमें खासी जानकारी है, और दक्षिण आफ्रिकाके बारेमें तो बहुत ही निकटकी जानकारी है। और इस सबके आधारपर मैं निःसंकोच कह सकता हूँ कि भारतीय न्यायालयोंपर तुलनात्मक दृष्टिसे सबसे ज्यादा खर्च किया जाता है। इस खर्चका लोगोंकी सामान्य आर्थिक स्थितिसे कोई मेल नहीं है। दक्षिण आफ्रिकाका अच्छेसे-अच्छा वकील भी—— और वहाँ भी इस कोटिके वकील वास्तवमें बहुत योग्य होते हैं——भारतीय वकीलों-जितनी फीस लेनेका साहस नहीं करता। कानूनी सलाह देनेके लिए वहाँ १५ गिनी लगभग ऊँचीसे-ऊँची फीस है। लेकिन हम जानते हैं भारतमें तो हजारों रुपये लिये जाते हैं। जिस प्रणालीके अधीन एक वकील महीने भरमें पचास हजारसे एक लाख रुपये तक कमाये, उस प्रणालीमें अवश्य ही कोई बहुत बड़ी खामी होगी। कानूनी पेशा कोई सट्टेबाजी-जैसा धन्धा नहीं है और न उसे ऐसा होना चाहिए। गरीबसे-गरीब लोगोंको वाजिब फीसपर अच्छेसे-अच्छे वकीलोंकी सेवा प्राप्त होनी चाहिए। लेकिन हमने तो अंग्रेज वकीलोंका अनुकरण किया है और इसमें उनसे भी आगे बढ़ गये हैं। अंग्रेजोंके लिए भारतकी आबोहवा बहुत कष्टकर होती है। और कड़ी सर्दीके अभ्यस्त होनेके कारण वे अक्सर पहाड़ोंपर और अपने वतनको आते-जाते रहते हैं, और अपने बच्चोंको वे एक बिलकुल अलग ढंगकी अभिजातवर्गीय शिक्षा देते हैं, इसलिए ये खर्चे पूरे करने की गरजसे स्वभावतः उनकी फीस बहुत ऊँची हुआ करती है। लेकिन भारत इस तरह अपना धन बहानेकी स्थितिमें नहीं है। हम सोचते हैं कि अपने-आपको इन अंग्रेज वकीलोंकी बराबरीके दर्जेका मान सकें, इसके लिए हमें भी उनकी तरह